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कुपात्र मानना और उनको दान देने या विनय आदि से पाप - मानना जैन धर्म का सिद्धान्त नहीं है। किन्तु तेरह पन्थियों का मनः कल्पित सिद्धान्त है । इस शास्त्र विरुद्ध और मानवधर्म विपरीत सिद्धान्त को देखकर जैन धर्म के सिद्धान्तों को बुरा बताना ठीक नहीं है। क्योंकि जैन धर्म जैसे रक्षा प्रधान धर्म के ऐसे मिन्दनीय सिद्धान्त नहीं हो सकते। अतः साधु के सिवाय सभी को कुपात्र बताना मिथ्या है। हमने ऊपर शास्त्रीय प्रमाणों से सिद्ध करके बता दिया है कि साधु से इतर सभी को कुपात्र 'मामने का सिद्धान्त जैनागम विरुद्ध है । आशा है कि पाठकगण इसे पढ़कर युक्ता युक्त विचार करके निर्णय करेंगे ।
'अणुकंपा जिणवरेहिं ण कहिंपि पडिसिद्धा”
भावार्थ- सुसीबतों में आए हुए सभी की मदद - अनुकम्पा • करनी चाहिये इसमें पात्र - कुपात्र का विचार नहीं करना चाहिये । ऐसा सभी जिमेश्वरों का फरमान है।
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श्री शांतिनाथ भगवान ने मेघस्थ राजा के भव में कबूतर को मौत के मुंह से बचाया था ।
जडू शाह ने दुष्काल के समय में करोड़ों क्वींटल अनाज मुफ्त वितरण करके धर्म और यश कमाया था । इसे कौन नहीं ज्ञानता??
तर मोम्मरसमे काली बिल्ली क्मो पाम ल्मगता है, तो कबूतर को दम्मा लिने कामों क्को का जिला कास्मों को धर्म ही तो होगा।।