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दिया जाता है । वह पाठ यह है- "तत्थ णं जे ते संजयासंजया तेसिणं आदिआओ तिन्नि किरियाओ कज्जति।” अर्थात् श्रावक को आदि की तीन क्रियाएँ यानि आरंभिकी पारिग्रहिकी और मायाप्रत्यया लगती है, परंतु अप्रत्याख्यानीकी (अव्रत की) और मिथ्या दर्शन प्रत्यया नहीं लगती है। इस पाठ में शास्त्रकार ने अव्रत की क्रिया का श्रावक में स्पष्ट निषेध किया है । अतः अव्रत के हिसाब से श्रावक को कुपात्र बताने वाले भीखणजी स्पष्ट शास्त्र विरुद्ध प्रलाप करने वाले हैं ।
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यद्यपि तेरहपन्थी लोग कहते हैं कि श्रावक जिन वस्तुओं से निवृत्त नहीं है उनकी क्रिया तो उनको लगती ही है । जिन से विरत है उनकी क्रिया नहीं लगती है। तथापि इनकी यह मान्यता भी आगम विरुद्ध है। क्योंकि - अनन्तानुबंधी कषायों के क्षयोपशम होने से मिथ्यात्व का अभाव होकर जीव को सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है और सम्यक्त्व की प्राप्ति होने के पश्चात उस जीव को मिथ्यात्व की क्रिया नहीं लगती है । इसी प्रकार अप्रत्याख्यानीय कषाय के क्षयोपशम होने से जीव में विरतिभाव आता है और विरतिभाव आने पर अविरति की क्रिया नहीं लगती है । यदि विरतिभाव आने पर भी अविरति की क्रिया लगे तो फिर सम्यक्त्व के आने पर भी मिथ्यात्व की क्रिया लगनी चाहिये । यदि तेरहपंथी यह कहें कि उववाई के पाठ में श्रावक को अट्ठारह ही पापों से देश से विरत कहा है और देश
अविरत कहा है । इसलिए श्रावक जिससे अविरत है उसकी क्रिया उसको लगनी चाहिये तो फिर उस पाठ में श्रावक का मिथ्यात्व से भी देश से ही विरत और देश से ही अविरत कहा