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नेमिनाथ महाकाव्य : कीर्तिराज उपाध्याय
है, जहाँ पौराणिक रीति से उसका अभिषेक सम्पन्न होता है । काव्य-नायक के दीक्षापूर्व अभिषेक का भी अनुष्ठान इन्द्र द्वारा किया जाता है । काव्य में समाविष्ट जिनेश्वर के दो स्तोत्र तथा प्रशस्ति गान भी इसकी पौराणिकता को इंगित करते हैं। पौराणिक महाकाव्यों की परिपाटी के अनुसार इसमें नारी को जीवन-पथ की बाधा माना गया है तथा इसका पर्यवसान शान्त रस में होता है । काव्यनायक दीक्षित होकर केवलज्ञान और अन्ततः शिवत्व प्राप्त करते हैं । उनकी देशना का समावेश भी काव्य में किया गया है। सुरसंघ द्वारा समवसरण की रचना, देवांगनाओं के नृत्य - गान, पुष्पवृष्टि आदि पुराण-सुलभ तत्त्वों का भी इसमें अभाव नहीं है ।
इन पौराणिक विशेषताओं के विद्यमान होने पर भी नेमिनाथकाव्य को पौराणिक महाकाव्य नहीं माना जा सकता । इसमें शास्त्रीय महाकाव्य के लक्षण इतने स्पष्ट तथा प्रचुर हैं कि इसकी पौराणिकता उनके सिन्धु-प्रवाह में पूर्णतया मज्जित हो जाती है । वर्ण्य वस्तु तथा अभिव्यंजना-शैली में वैषम्य, जो हासकालीन संस्कृत महाकाव्य की मुख्य विशेषता है, नेमिनाथमहाकाव्य में भरपूर विद्यमान है । शास्त्रीय महाकाव्यों की भाँति इसमें वस्तु व्यापार के विविध वर्णनों की विस्तृत योजना की गयी है । वस्तुतः काव्य में इन्हीं का प्राधान्य है और इन्हीं के माध्यम
कवि-प्रतिभा की अभिव्यक्ति हुई हैं । इसकी भाषा-शैलीगत प्रोढता तथा गरिमा और चित्रकाव्य के द्वारा रचना - कौशल के प्रदर्शन की प्रवृत्ति इसकी शास्त्रीयता का निर्भ्रान्त उद्घोष है । इनके अतिरिक्त अलंकारों का भावपूर्ण विधान, काव्य - रूढ़ियों art frष्ठापूर्वक विनियोग, तीव्र रसव्यंजना, सुमधुर छन्दों का प्रयोग, प्रकृति तथा मानव-सौन्दर्य का हृदयग्राही चित्रण आदि शास्त्रीय काव्यों की ऐसी विशेषताएँ इस काव्य में हैं कि इसकी शास्त्रीयता में सन्देह नहीं रह जाता । अतः इसका विवेचन शास्त्रीय महाकाव्यों के अन्तर्गत किया जा रहा है ।
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कवि परिचय तथा रचनाकाल
अधिकांश जैन काव्यों की रचना-पद्धति के विपरीत नेमिनाथमहाकाव्य में प्रान्त - प्रशस्ति का अभाव है । काव्य में भी कीर्तिराज के जीवन अथवा स्थितिकाल AAT कोई संकेत नहीं मिलता । अन्य ऐतिहासिक लेखों के आधार पर उनके जीवनवृत्त का पुननिर्माण करने का प्रयत्न किया गया है। उनके अनुसार कीर्तिराज अपने समय के प्रख्यात तथा प्रभावशाली खरतरगच्छीय आचार्य थे । वे संखवाल गोत्रीय शाह कोचर के वंशज दीपा के कनिष्ठ पुत्र 1 उनका जन्म सम्वत् १४४६ में दीपा की पत्नी देवलदे की कुक्षि से हुआ था । उनका जन्म का नाम देल्हाकुंवर था । देल्हाकुंवर ने चौदह वर्ष की अल्पावस्था में, सम्वत् १४६३ की आषाढ़ कृष्णा एका - दशी को, आचार्य जिनवर्धनसूरि से दीक्षा ग्रहण की। आचार्य ने नवदीक्षित कुमार