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जैन संस्कृत महाकाव्य का नाम कीतिराज रखा। कीतिराज के साहित्य-गुरु भी जिनवर्द्धनसूरि ही थे । उनकी प्रतिभा तथा विद्वत्ता से प्रभावित होकर जिनवर्द्धनसूरि ने उन्हें सम्वत् १४७० में वाचनाचार्य पद पर और दस वर्ष पश्चात् जिनभद्रसूरि ने उन्हें, मेहवे में, उपाध्याय पद पर प्रतिष्ठित किया। पूर्व-देशों का विहार करते समय जब कीतिराज का जैसलमेर में आगमन हुआ तो गच्छनायक जिनभद्रसूरि ने उन्हें सम्वत् १४६७ में आचार्य पद प्रदान किया। तत्पश्चात् वे कोतिरत्नसूरि नाम से प्रख्यात हुए। उन्होंने पच्चीस दिन की अनशन-आराधना के पश्चात् सम्वत् १५२५ में, ७६ वर्ष की प्रौढ़ावस्था में, वीरमपुर में देहोत्सर्ग किया। संघ ने वहाँ एक स्तूप का निर्माण कराया, जो अब भी विद्यमान है। जयकीत्ति तथा अभयविलासकृत गीतों से ज्ञात होता है कि सम्वत् १८७६ में गड़ाले (बीकानेर का समीपवर्ती ग्राम नाल) में उनका प्रासाद बनवाया गया था। नेमिनाथ काव्य के अतिरिक्त उनके कतिपय स्तवनादि भी उपलब्ध हैं।
नेमिनाथमहाकाव्य उपाध्याय कीतिराज की रचना है। कीतिराज को उपाध्याय पद सम्वत् १४८० में प्राप्त हुआ था और मं० १४६७ में वे आचार्य पद पर आसीन होकर कीतिरत्न सूरि बन चुके थे। नेमिनाथकाव्य स्पष्टतः सं० १४८० तथा १४६७ के मध्य लिखा गया होगा। सम्वत् १४६५ में लिखित इसकी प्राचीनतम प्रति के आधार पर नेमिनाथकाव्य को उक्त सम्वत् की रचना मानने की कल्पना की गई है। यह हस्तप्रति काव्य का प्रथम आदर्श प्रतीत होता है, अतः उक्त कल्पना तथ्य के बहुत निकट है। कथानक
नेमिनाथमहाकाव्य के बारह सर्गों में तीर्थंकर नेमिनाथ का जीवन-चरित निबद्ध करने का उपक्रम है। कवि ने जिस परिवेश में जिन-चरित प्रस्तुत किया है, उसमें उसकी कतिपय प्रमुख घटनाओं का ही निरूपण हो सका है।
प्रथम सर्ग में यादवराज समुद्रविजय की पत्नी शिवादेवी के गर्भ में जिनेश्वर के अवतरण का वर्णन है । अलंकारों की विवेकपूर्ण योजना तथा विम्बवैविध्य के द्वारा कवि राजधानी सूर्यपुर तथा समुद्रविजय के विविध गुणों का रोचक कवित्वपूर्ण चित्र अंकित कर में सफल हुआ है । द्वितीय सर्ग में शिवदेवी परम्परागत चौदह स्वप्न देखती है। समुद्रविजय स्वप्नफल बतलाते हैं कि इन स्वप्नों के दर्शन से तुम्हें प्रतापी पुत्र प्राप्त होगा, जो अपने भुजबल से चारों दिशाओं को जीतकर चौदह भवनों का अधि
२. विस्तृत परिचय के लिए देखिये-सर्वश्री अगरचन्द नाहटा तथा भंवरलाल _ नाहटा द्वारा संपादित 'ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह', प० ३६-४०. ३. जिनरत्नकोश, विभाग, १५० २१७.