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जैन संस्कृत महाकाव्य
उसके प्रति पाठक की उत्सुकता जाग्रत होती है । द्वितीय सर्ग में स्वप्न-दर्शन से लेकर तृतीय सर्ग में पुत्रजन्म तक प्रतिमुख सन्धि स्वीकार की जा सकती है, क्योंकि मुखसन्धि में जिस कथाबीज का वपन हुआ था, वह यहाँ अलक्ष्य रहकर पुत्रजन्म से लक्ष्य हो जाता है। चतुर्थ से अष्टम सर्ग तक गर्भसन्धि मानी जा सकती है । सूतिकर्म, स्नात्रोत्सव तथा जन्माभिषेक में फलागम काव्य के गर्भ में गुप्त रहता है। नवें से ग्यारहवें सर्ग तक, एक ओर, नेमिनाथ के विवाह-प्रस्ताव स्वीकार करने से मुख्य फल की प्राप्ति में बाधा आती होती है, किन्तु, दूसरी ओर, वधूगृह में वध्य पशुओं का करुण-क्रन्दन सुनकर उनके निर्वेदग्रस्त होने तथा दीक्षा ग्रहण करने से फल प्राप्ति निश्चित हो जाती है। यहाँ विमर्श सन्धि है। ग्यारहवें सर्ग के अन्त में नेमि के केवलज्ञान तथा बारहवें सर्ग में उनकी शिवत्व-प्राप्ति के वर्णन में निर्बहण सन्धि विद्यमान है।
महाकाव्य-परिपाटी के अनुसार नेमिनाथ-महाकाव्य में नगर, पर्वत, वन, दूत-प्रेषण, सैन्य-प्रयाण, युद्ध (प्रतीकात्मक), पुत्रजन्म, षड् ऋतु आदि के विस्तृत वर्णन पाये जाते हैं, जो इसमें जीवन के विभिन्न पक्षों की अभिव्यक्ति तथा रोचकता संक्रान्त करते हैं। इसका आरम्भ नमस्कारात्मक मंगलाचरण से हुआ है, जिसमें स्वयं काव्यनायक नेमिनाथ की चरणवन्दना की गयी है। इसकी भाषा में महाकाव्योचित भव्यता तथा शैली में अपेक्षित उदात्तता है। अन्तिम सर्ग के एक अंश में चित्रकाव्य की योजना करके कवि ने चमत्कृति उत्पन्न करने तथा अपना भाषाधिकार प्रदर्शित करने का प्रयास किया है। काव्य के आरम्भ में सज्जन-प्रशंसा, खलनिन्दा तथा नगरवर्णन की रूढ़ियों का पालन किया गया है। छन्दप्रयोग-सम्बन्धी परम्परागत बन्धन कवि को सदा स्वीकार्य नहीं। इस प्रकार नेमिनाथकाव्य में महाकाव्य के सभी अनिवार्य स्थूल तत्त्व विद्यमान हैं, जो इसकी सफलता के निश्चित प्रमाण हैं। नेमिनाथमहाकाव्य की शास्त्रीयता
नेमिनाथमहाकाव्य पौराणिक कृति है अथवा इसकी गणना शास्त्रीय महाकाव्यों में की जानी चाहिए, इसका निश्चित निर्णय करना कठिन है। इसमें पौराणिक तत्त्वों तथा शास्त्रीय महाकाव्य के गुणों का विचित्र गठबन्धन है । नेमिनाथकाव्य का कथानक शुद्धतः पौराणिक है। पौराणिक महाकाव्यों की भाँति इसका आरम्भ जम्बूद्वीप तथा उसके अन्तर्वर्ती भारत देश के वर्णन से किया गया है। शिवादेवी के गर्भ में जिनेश्वर का अवतरण होता है जिसके फलस्वरूप उसे भावी तीर्थंकर के जन्म के सूचक चौदह परम्परागत स्वप्न दिखाई देते हैं । दिक्कुमारियाँ नवजात शिशु का सूतिकर्म करती हैं। देवराज इन्द्र माता शिवा को अवस्वापिनी विद्या से सुलाकर शिशु को स्नात्रोत्सव के लिए मेरु पर्वत पर ले जाता