________________
३. नेमिनाथमहाकाव्य : कीर्तिराज उपाध्याय
कविचक्रवर्ती कीर्त्तिराज उपाध्याय कृत नेमिनाथमहाकाव्य' में जिनेश्वर नेमिनाथ का प्रेरक चरित्र, महाकाव्योचित विस्तार के साथ निबद्ध है । कीर्तिराज कालिदास के पश्चाद्वर्ती उन इने-गिने कवियों में हैं, जिन्होंने माघ, श्रीहर्ष आदि की कृत्रिम शैली के एकछत्र शासन से मुक्त होकर, सुरुचिपूर्ण काव्य-मार्ग ग्रहण किया है । नेमिनाथमहाकाव्य में भावपक्ष तथा कलापक्ष का जो काम्य सन्तुलन है, वह तत्कालीन कवियों की रचनाओं में कम मिलता है । पाण्डित्य प्रदर्शन के उस युग में नेमिनाथमहाकाव्य जैसी प्रांजल कृति की रचना करना कीर्तिराज की बहुत बड़ी उपलब्धि है, यद्यपि वह भी विद्वत्ता - प्रदर्शन की प्रवृत्ति से पूर्णतया अस्पृष्ट नहीं है । नेमिनाथ काव्य का महाकाव्यत्व
प्राचीन आलंकारिकों ने महाकाव्य के जो मानदण्ड निश्चित किये हैं, नेमिनाथकाव्य में उनका मनोयोगपूर्वक पालन किया गया है। शास्त्रीय नियम के अनुसार महाकाव्य में श्रृंगार, वीर तथा शान्त में से किसी एक रस की प्रधानता अपेक्षित है । नेमिनाथमहाकाव्य के उद्देश्य तथा वातावरण के परिप्रेक्ष्य में शान्त रस को इसका अंगीरस माना जाएगा, यद्यपि काव्य में इसकी अंगी रसोचित तीव्र व्यंजना नहीं हुई है । करुण, श्रृंगार, रौद्र, वीर आदि का गौण रूप में यथोचित परिपाक हुआ है । क्षत्रिय कुल प्रसूत देवतुल्य नेमिनाथ इसके धीर प्रशान्त नायक हैं । इसकी रचना धर्म तथा मोक्ष की प्राप्ति के उदात्त उद्देश्य से प्रेरित है । धर्म का अभिप्राय यहां नैतिक उत्थान तथा मोक्ष का तात्पर्य आमुष्मिक अभ्युदय है । विषयों तथा अन्य सांसारिक आकर्षणों को तृणवत् त्याग कर मानव को परम पद की ओर उन्मुख करना इसकी रचना का प्रेरणा - बिन्दु है । नेमिनाथमहाकाव्य का कथानक नेमिप्रभु के लोकविख्यात चरित पर आश्रित है । इसका आधार मुख्यतः त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित आदि जैन पुराण हैं, यद्यपि प्राकृत तथा अपभ्रंश के अनेक कवि भी इसे अपने काव्यों का विषय बना चुके थे। इसके संक्षिप्त कथानक में पाँचों सन्धियों का निर्वाह हुआ है । प्रथम सर्ग में शिवादेवी के गर्भ से जिनेश्वर के अवतरित होने में मुख सन्धि है । इसमें काव्य के फलागम का बीज निहित है तथा
१. सम्पादक : डॉ० सत्यव्रत, अभय जैन ग्रन्थमाला, ग्रन्थांक ३२, बीकानेर,
१६७५.