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जैन संस्कृत महाकाव्य
दिया है।
ताम्ररोचिरतितप्तमुपानं हेमगोलमिव कालकलावः ।
अभिपज्जलनिधौ रविविम्बं निर्मिमासुरथ विश्वविभूषाम् ॥ १०-५३
नवोदित चन्द्रमा क्षीण क्यों होता है ? इस सम्बन्ध में मण्डन की कल्पना देखिये । चन्द्रमा स्वामिद्रोह का दोषी है। उसके स्वामी भगवान शंकर ने अपने तृतीय नेत्र की ज्वाला से जिस काम को भस्म किया था, चन्द्रमा उसे अपनी अमृतवर्षी किरणों से पुनः जीवित करने की चपलता करता है। प्रभुद्रोह के उस मपराध के दण्ड के रूप में उसे क्षीणता भोगनी पड़ती है ।
त्रिनयननयनाचिर्दग्धव्हं यदि
दुर्मदनममृतवर्ष वयन्त्यंशुभिः स्वः । तदनुभवति नूनं स्वप्रभुद्रोहजांह- '
फलममितमजन क्षीणतां बिभ्रदंगे ॥१०.६८ मण्डन ने प्रकृति को मानवी रूप देने में भी अपनी निपुणता का परिचय दिया हैं । काव्यमण्डन में प्रकृति के मानवीकरण के अनेक अभिराम चित्र अंकित किये गये हैं । मण्डन का पावस शक्तिशाली सम्राट् के समान अपने शत्रु, ग्रीष्म, का उच्छेद करके, राजसी ठाट से गगनांगन में प्रवेश करता है । घनघोर गर्जना करता हुआ मेघ उसका मदमस्त हाथी है, बिजली ध्वजा है, इन्द्र-धनुष उसका चाप है, बगुले चंवर हैं स्था खुम्ब श्वेत छत्र हैं । प्रमुदित मयूर, बंदियों की तरह, उसका उल्लासपूर्वक अभिनन्दन करते हैं।
अथ घनाघनमत्तमतंगजो निमिषरोचिदंचितकेतनः। रुचिरशक्रशरासननिष्यतच्छरचयं रचयम्भुवि संभवम् ।। २.१ बहलगजितकृज्जजलागमः प्रमदवच्छिखिबन्विभिरीडितः । अतनुभूतिरिवोद्धतभूपतिः सनतपंनतपंतमहन्नरिम् ॥ २.२ रुचिरचामरचारबलाक उच्छतशिलिन्प्रसितातपवारणः ।
प्रकटयन्सुतरामतुराजतां प्रमुदिरो मुदिरोदय आवभौ ॥ २.४.
वसन्त-वर्णन के निम्नोक्त पद्य में लता पर रजस्वला नारी का आरोप किया गया है, जो लज्जित होकर पल्लवों के वस्त्र से रजधर्म के सभी चिह्न छिपाने का प्रयास कर रही है।
लता पुष्पवती जाता मधोः संगाद् वरिव ।
लसत्पल्लववस्त्रेण लज्जितात्मानमावृणोत् ॥ ३.२०
पहले कहा गया है कि प्रकृति के आलम्बन पक्ष के चित्रण में कवि को अधिक वि नहीं है । काव्यमण्डन में प्रकृति के स्वाभाविक सौन्दर्य के कतिपय चित्र ही