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काव्यमण्डन : मण्डन
के आखेट, दीपावली तथा दोलाक्रीड़ा के अपेक्षाकृत विस्तृत एवं अनावश्यक वर्णनों से कवि की प्रकृतिचित्रण के प्रति वास्तविक भावना तथा दृष्टिकोण स्पष्ट है । यह बात भिन्न है कि इन प्रसंगों में प्रकृति के कतिपय अतीव मनोरम चित्र अंकित हुए हैं और वे कवि के प्रकृति-प्रेम के परिचायक हैं । प्रकृति-वर्णन की कालिदासोत्तर परम्परा के अनुरूप मण्डन के प्रकृति-चित्रण में स्वाभाविकता की कमी है । उसने अधिकतर उक्तिवैचित्र्य को प्रकृति-वर्णन का आधार बनाया है। इसीलिये भारवि, हर्ष आदि की कृतियों की भाँति काव्यमण्डन में प्रकृति के अलंकृत वर्णनों का बाहुल्य है। अलंकृत वर्णनों के अन्तर्गत कहीं विविध अलंकारों के आधार पर प्रकृति का कल्पनापूर्ण वर्णन किया जाता है, कहीं उसे मानवी रूप में प्रस्तुत किया जाता है और कहीं उसके उद्दीपन पक्ष को उभारा जाता है । काव्यमण्डन में प्रकृति-चित्रण की उक्त सभी श्रेणियाँ दृष्टिगत होती हैं । द्वितीय सर्ग का पावसवर्णन आद्यन्त यमक से आच्छादित है । दसवें सर्ग का सूर्यास्त तथा चन्द्रोदय का वर्णन कवि-कल्पना से तरलित है। इस बात का अपलाप नहीं किया जा सकता कि इन अलंकृत वर्णनों के आवरण के नीचे कहीं-कहीं प्रकृति के स्वाभाविक उपादानों का भी चित्रण हुआ है। काव्यमण्डन के इन सहज अलंकृत चित्रों का निजी सौन्दर्य है।
सुकृती धर्मराज तथा शरत् के इस श्लिष्ट वर्णन में शरत्काल के सहजात गुणों का चित्रण निहित है। धर्मपुत्र की सद्वृत्ति से लोकों में लक्ष्मी का उदय होता है, मूढ़ व्यक्ति जड़ता छोड़कर निर्मल बुद्धि प्राप्त करते हैं और वह सर्वत्र पवित्रता का संचार करती है । शरत् में कमल खिल उठते हैं, जलाशयों का जल निर्मल हों जाता है और मार्ग आदि का कीचड़ सूख जाता है । श्लेष के महीन आवरण में शरद ऋतु की स्वाभाविकता स्पष्ट दिखाई दे रही है।
पद्मोदयं निदधती भुवनेष्वथोच्च.
रातन्वती विमलतां च जडाशयेऽपि । निष्पंकतां विवधती भुवि धर्मसूनो
वृत्तिर्यथा सुकृतिनः शरवाविरासीत् ॥ ३.१. मण्डन के कतिपय अलंकृत वर्णन बहुत अनूठे हैं । उनसे उसकी कमनीय कल्पना तथा शिल्पकौशल का परिचय मिलता है। सूर्यास्त के साधारण दृश्य को कवि ने सन्ध्याकाल पर स्वर्णकार के कर्म का आरोप करके रोचकता से भर दिया है। जैसे स्वर्णकार सोने को आग में तपा कर पहले पानी में बुझाता है, फिर उससे नाना प्रकार के आकर्षक आभूषण बनाता है, उसी प्रकार सन्ध्या के स्वर्णकार ने स्वर्णपिण्ड के समान सूर्य को आकाश की मूषा में तपाया है और संसार को चांद, तारों आदि के भूषणों से सुशोभित करने के लिये उसे पश्चिम सागर के पानी में फेंक