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जैन संस्कृत महाकाव्य है। माता-पिता, बन्धु-बान्धव आदि समूचे सम्बन्ध मरुमरीचिका की तरह आभास मात्र हैं। उनकी स्थिति बुद्बुद, इन्द्रधनुष, इन्द्रजाल आदि से श्रेष्ठ नहीं। अत: इस असार संसार में मनुष्य को प्राणों की बाज़ी लगाकर भी निर्मल यश का संचय करना चाहिए। शिवि ने अपना मांस तथा दधीचि ने अस्थियां देकर यही किया। वैभव तथा विषयों की क्षणभंगुरता के इस चित्रण में शान्त रस की पावन धारा प्रवाहित है।
स्वं शिविः पलमदादधीचिरप्यस्थिसंचयमसारसंसतौ । सद्यशः कुमुदकुन्दनिर्मलं स्थास्नु च प्रविवधेऽधिविष्टपम् ॥ ६.१५ भ्रातृमातृपितृपुत्रवान्धवप्रेयसीप्रभूतयो विम्तयः । स्वादवश्च विषया हया गजा भूरयो निमिषभंगुरा इमे ॥ ९.१६.
अपने प्राणप्रिय भाइयों को कुलदेवता के मन्दिर में बन्दी अवस्था में तथा दैत्य किम्मर्मीर को उन्हें बलि देने को तैयार देख कर भीम क्रोध से पागल हो जाता है। उसकी भृकुटि तन जाती है, गदा घूमने लगती है, उसकी सिंहगर्जना से पर्वत गूंज उठते हैं और लोगों का हृदय दरक जाता है । उसकी इन चेष्टाओं के चित्रण में रौद्र रस की अवतारणा हुई है।
इति श्रुत्वा मानीतनुजवचनं वत्सलतया
___ गवां भ्रामं भ्रामं भकुटिकुटिलास्योऽमिलसुतः। महासिंहध्वानोन्मुखरगिरिविद्रावितजनो
वदन्संतिष्ठस्वेत्यसुरपतिमत्युद्धतषा ॥७.३५. काव्यमण्डन में श्रृंगाररस के पल्लवन के लिये अधिक स्थान नहीं है। द्रौपदी के सौन्दर्य-वर्णन में अधिकतर शृंगार के आलम्बन विभाव का निरूपण है । काम की कटारी के समान द्रौपदी के स्वयम्वर-मण्डप में प्रविष्ट होते ही उपस्थित राजाओं के समुद्र में कामजन्य क्षोभ का ज्वार आ जाता है । यहां श्रृंगार के उद्दीपन विभाव का भी चित्रण हुआ है।
जगज्जयायास्त्रमिवासमेषोः सा ब्रौपदी संसदमाससाद । विक्षोभयन्ती वदनेन्दुनाथ नानावनीनाथसमूहवाद्धिम् ॥ ११.१.
मण्डन ने इस प्रकार विविध प्रसंगों में मनोभावों के मार्मिक चित्रण के द्वारा काव्य को रसात्मकता से सिक्त बनाया है। यह तीव्र रसवत्ता काव्य की विभूति है। प्रकृति-चित्रण
___ काव्यमण्डन में प्रकृति का चित्रण शास्त्रीय विधान की खानापूर्ति के लिये किया गया है । प्रथम सर्ग के तुरन्त बाद दो सर्गों में ऋतु-वर्णन तथा दसवें सर्ग में स्वयम्वरमण्डप आदि के पश्चात् सूर्यास्त और चन्द्रोदय का वर्णन परम्परा के निर्वाह के लिये जबरदस्ती फिट किया गया प्रतीत होता है। ऋतुवर्णन के अन्तर्गत पाण्डवों