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जैन संस्कृत महाकाव्य
कुन्तक स्वभावोक्ति को अलंकार मानने के पक्ष में नहीं है, किन्तु अन्य अधिकतर साहित्यशास्त्रियों ने इसे अलंकार के पद पर प्रतिष्ठित किया है। बारहवें सर्ग में वनवर्णन के अन्तर्गत प्रयुक्त कीतिराज की स्वभावोक्तियों का संकेत पहले किया जा चुका है । द्वितीय सर्ग में गज-प्रकृति का चित्रण स्वभावोक्ति के द्वारा किया गया है । हाथी का यह स्वभाव है कि वह रात भर गहरी नींद सोता है। प्रातःकाल जागकर भी वह अलसाई आंखों को मूंदे पड़ा रहता है, किन्तु बार-बार करवटें बदल कर पांव की बेड़ी से शब्द करता है जिससे उसके जागने की सूचना गजपालों को मिल जाती है।
निद्रासुखं समनुभूय चिराय रात्रावुद्ध तशृंखलारवं परिवयं पार्श्वम् । प्राप्य प्रबोधमपि देव ! गजेन्द्र एष नोन्मीलयत्यलसनेत्रयुगं मदान्धः ॥२.५४
प्रभात-वर्णन के प्रस्तुत पद्य में भ्रमर, पद्मिनी तथा सूर्य पर क्रमश: परपुरुष, व्यभिचारिणी तथा पति के व्यवहार का आरोप किया गया है। अत: यह समासोक्ति है।
यत्र भ्रमद्धमरचुम्बिताननामवेक्ष्य कोपादिव मूनि पदिमनीम् । स्वप्रेयसी लोहितमूर्तिमावहन कठोरपानिजघान तापनः ॥ २.४२
शब्दालंकारों में अनुप्रास तथा यमक के अतिरिक्त श्लेष के प्रति कवि का विशेष मोह है । नेमिनाथमहाकाव्य में अनुप्रास का स्वर, किसी-न-किसी रूप में, सर्वत्र ध्वनित है । यमक के प्रायः सभी भेद काव्य में प्रयुक्त हुए हैं। पादयमक तथा महायमक का दिग्दर्शन ऊपर कराया गया है। इन्हें छोड़कर कीर्तिराज ने यमक की ऐसी सुरुचिपूर्ण योजना की है कि उसमें क्लिष्टता नहीं आने पाई। ऋतु-वर्णन वाला अष्टम सर्ग आद्यन्त यमक से भरपूर है। श्लेष कवि को इतना प्रिय है कि उसने श्लिष्ट काव्य के प्रणेता को मुनिवत् वन्दनीय माना है । काव्य में श्लेष का व्यापक प्रयोग किया गया है। नेमिनाथमहाकाव्य में स्वतन्त्र प्रयोग के अतिरिक्त उपमा, विरोध, परिसंख्या, आदि अन्य अलंकार भी श्लेष की भित्ति पर आधारित है। २०. नानाश्लेषरसप्रौढां हित्वा कान्तां मुनीश्वराः ।
ये चाहुस्तादृशों वाचं वन्दनीयाः कथं न ते । वही. १.३. २१. श्लेषोपमा-बाणभापितगोमा यो वशेप्सितदर्शनः ।
रंगकुशलताहारी चण्डषण्ड इवाबमौ ॥ वही, १.३७ विरोध-मन्दाक्षसंवृतांगोऽपि न मन्दाक्षकुरूपभाक् ।
सदापीडोऽपि यत्रासीद् विपीडो मानिनीजनः । वही, १.१६ परिसंख्या-न मन्दोऽपि जनः कोऽपि परं मन्दो यदि ग्रहः ।
____ वियोगो नापि दम्पत्योवियोगस्तु परं वने ॥ वही, १.१७