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नेमिनाथमहाकाव्य : कीतिराज उपाध्याय
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(३.६) । यहाँ कवि ने अमूर्त भाव की अभिव्यक्ति के लिये मूर्त उपमान का आश्रय लिया है। निम्नांकित पद्य में मूर्त रथ की तुलना अमूर्त मन से की गयी है । नेमि के आदेश से सूत ने वधूगृह से रथ इस प्रकार मोड़ लिया जैसे योगी ज्ञान के बल से. अपना मन बुरे विचार से हटा लेता है।
सूतो रथं स्वामिनिदेशतोऽथ निवर्तयामास विवाहगेहात् । यथा गुरज्ञानबलेन मैक्षु दुनितो योगिजनो मनः स्वम् ॥ १०.३३ ।
उत्प्रेक्षा के प्रयोग में भी कवि का यही कौशल दृष्टिगोचर होता है । भावपूर्ण सटीक अप्रस्तुतों से कवि के वर्णन चमत्कृत हैं। छठे सर्ग में देवांगनाओं के तथा नवें; सर्ग में राजमती के सौन्दर्य-वर्णन के प्रसंग में अनेक अनूठी उत्प्रेक्षाओं का प्रयोग हुआ है। राजीमती के नवोदित स्तन ऐसे लगते थे मानो उसके वक्ष को भेद कर निकले हुए काम के दो कन्द हों -
सलावण्यरसौ यस्याः स्तमकुम्भौ स्म राजतः। वक्षःस्थलं समुद्भिद्य कामकन्दाविवोत्थितौ ॥ ६.५४
प्रभात का निम्नोक्त वर्णन रूपक का परिधान पहन कर आया है । यहां रात्रि, तिमिर, दिशाओं तथा किरणों पर क्रमशः स्त्री, अंजन, पुत्री तथा जल का आरोप किया गया है।
रात्रिस्त्रिया मुग्धतया तमोऽजनविग्धानि काष्ठातनयामुखान्यथ । प्रक्षालयत्पूषमयूखपाथसा देव्या विभातं ददृशे स्वतातवत् ॥ २.३०
समुद्रविजय के शौर्य-वर्णन के अन्तर्गत प्रस्तुत पंक्तियों में शत्रुओं के वध का प्रकारान्तर से निरूपण किया गया है। अतः यहां पर्यायोक्त अलंकार है।
रणरात्रौ महीनाथ चन्द्रहासो विलोक्यते । वियुज्यते स्वकान्ताभ्यश्चक्रवाकैरिवारिभिः ॥ ७.२७
जिनेश्वर की लोकोत्तर विलक्षणता का चित्रण करते समय कवि की कल्पना अतिशयोक्ति के रूप में प्रकट हुई है । यहां 'यदि' शब्द के बल से असम्भव अर्थ की कल्पना की गयी है।
यद्यर्कदुग्धं शुचिगोरसस्य प्राप्नोति साम्यं च विषं सुधायाः । देवान्तरं देव ! तदा त्वदीयां तुल्यां दधाति त्रिजगत्प्रदीप ॥ ६.३५
नेमिनाथ के स्नात्रोत्सव के निम्नोक्त पद्य के कारण तथा कार्य के भिन्नभिन्न स्थानों पर होने के कारण असंगति अलंकार है।
पन्धसार-धनसार-विलेपं कन्यका विदधिरे तदंगे। कौतुकं महदिदं यदमूषामप्यनश्यदखिलो खलु तापः॥ ४.४४ नेमिनाथमहाकाव्य में कुछ हृदयग्राही स्वभावोक्तियां भी प्रयुक्त हुई हैं।