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नेमिनाथमहाकाव्य : कीतिराज उपाध्याय
समुद्रविजय तथा शिवा के इस वार्तालाप में वृषभ, गौ, वृषांक तथा शंकर की भिन्नार्थ में योजना करने से वक्रोक्ति का सुन्दर प्रयोग हुआ है ।
देवः प्रिये ! को वृषभोऽयि ! किं गौः ! नैव वृषांक: ! किमु शंकरो, न। जिनो नु चक्रीति वधूवराभ्यां यो वक्रमुक्तः स मुदे जिनेन्द्रः ॥ ३.१२
इनके अतिरिक्त दृष्टान्त, अर्थान्तरन्यास, सन्देह, विरोधाभास, व्यतिरेक, विभावना, काव्यलिंग, निदर्शना, सहोक्ति, विषम आदि अलंकार भी नेमिनाथकाव्य के सौन्दर्य में वृद्धि करते हैं। छन्दयोजना
नेमिनाथमहाकाव्य में छन्दों के विधान में शास्त्र का आंशिक पालन किया गया है । इसके बारह में से पांच सर्गों की रचना विविध छन्दों में हुई है। शेष सात सर्गों में एक छन्द की प्रधानता है तथा सर्गान्त में छन्द बदल जाता है। नेमिनाथकाव्य में पच्चीस छन्द प्रयुक्त हुए हैं, जो इस प्रकार हैं-अनुष्टुप्, उपजाति, मालिनी, उपगीति, नन्दिनी, वैतालीय, मन्दाक्रान्ता, इन्द्रवंशा, वंशस्थ, इद्रवज्रा, वसन्ततिलका, द्रुतविलम्बित, शालिनी, स्वागता, रथोद्धता, उपजाति (वंशस्थ-+इन्द्रवंशा), प्रमिताक्षरा, शार्दूलविक्रीडित, विभावरी, तोटक, वियोगिनी, उपेन्द्र वजा, आर्या, औपच्छन्दसिक तथा स्रग्धरा। इनमें उपजाति का प्रयोग सबसे अधिक है।
नेमिनाथमहाकाव्य की रचना कालिदास की परम्परा में हुई है। धार्मिक कथानक चुन कर भी कीतिराज ने अपनी कवित्वशक्ति, सुरुचि तथा सन्तुलित दृष्टिकोण के कारण साहित्य को ऐसा रोचक महाकाव्य दिया है, जिसका संस्कृत-महान काव्यों में सम्मानित स्थान है।