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बंकचूलचरियं
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१२. तब आचार्य ने शिक्षा देते हुए कहा- तुम सदा धर्म में रत रहना । धर्म ही मनुष्यों का सदा सहायक है। वह ही त्राण, शरण और गति है ।
१३. तुम गृहीत व्रतों का दृढता से पालन करना । वे सदा तुम्हारे लिए सुखदायी होंगे । उनको कभी मत छोड़ना ।
१४. उसको यह शिक्षा देकर आचार्य ने विहार कर दिया । उनको छोड़ने के लिए बंकचूल कुछ दूर गया ।
१५. जब उसके राज्य की सीमा आई तब बंकचूल ने रोते हुए कहाकृपालुगणाधिपति ! मुझे पुनः दर्शन देना ।
१६. इस प्रकार आचार्य को निवेदन कर उसने उनका विहार करा दिया । आचार्य के दूर जाने पर वह खिन्न होकर महल में लौट आया।
१७. उसका किसी कार्य में मन नहीं लगता है । लेकिन साधुओं की मर्यादा को ध्यान में रखकर वह अपने मन को आश्वासन देता है ।
१८. आचार्य का प्रतिपल स्मरण करता हुआ वह सदा धर्म जागरण करता है और अपने समय को धार्मिक कार्यों में ही व्यतीत करता है ।
१९. इस प्रकार कुछ दिन बीत गए। एक बार कामरूप देश के राजा ने सेना सहित उस राज्य पर अचानक हमला कर दिया ।
२०. यह बात जानकर राजा ने बंकचूल से कहा- पुत्र ! तुम सेना लेकर शीघ्र युद्ध करने जाओ।
२१-२२. अहिंसा निष्ठ व्यक्ति किसी पर आक्रमण करना नहीं चाहता । लेकिन जब कोई आक्रमण करता है तब वह देश की रक्षा के लिए लड़ता है। वह कभी पलायन नहीं करता । सदा अपने कर्तव्य का पालन करता है । यह कथन असत्य है कि अहिंसक सदा कायर होते हैं ।