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बंकचूलचरियं
२५. बंकचूल ने कहा- मैं अभी प्रतिज्ञाबद्ध हूं । अत: जब तक इनका नाम प्रकट नहीं होगा तब तक मैं नहीं खा सकता।
२६. (यह सुन) सभी ने कहा- हम अभी भूखें हैं। हमारे प्राणों की रक्षा भी कठिन है । अत: पहले प्राणों की रक्षा करनी चाहिए, फिर नियमों की ।
२७. यदि प्राण नष्ट हो जायेंगे तो व्रतों की रक्षा कैसे होगी ? जीवित व्यक्ति ही संसार में सब कुछ कर सकता है- इसमें क्या संदेह है ?
२८-२९. उनका कथन सुनकर बंकचूल ने कहा-अनुकूल समय में व्रतों की रक्षा करना सभी के लिए सरल है। किन्तु जो प्रतिकुल समय में भी व्रतों की रक्षा करते हैं वे संसार में विरले ही हैं। प्राय: मनुष्य प्रतिकूल समय को पाकर व्रतों को शीघ्र तोड़ देते हैं।
३०. जो व्यक्ति प्रतिकूल समय को पाकर भी व्रतों को नहीं तोड़ते हैं वे ही वास्तव में व्रतों के आराधक हैं।
३१. प्राण चाहे नष्ट हो या न हो इसकी मेरे मन में चिन्ता नहीं है। किन्तु ग्रहण किए हुए व्रत टूटे नहीं यही अभी चिन्ता है।
३२. इन फलों को मैं अभी नहीं खायूँगा और तुम लोग भी अभी मत खाओ यही मेरी सलाह है।
३३. एक भील को छोड़कर अन्य किसी ने उसकी मंत्रणा स्वीकार नहीं की। आपदाएं जब नजदीक होती है तब किसी को हितकारी बात अच्छी नहीं लगती।
३४. उन फलों को खाकर सबने अपनी भूख शांत की और अपने श्रम को दूर करने के लिए वे सब सो गए।
३५. जब जाने का समय हुआ तब उनमें से कोई भी नहीं उठा । कौन जानता है कि उनकी यह नींद चिरकालिक हो गई ?
३६. जिस भील ने बंकचूल की बात मानकर उन फलों को नहीं खाया था उसको बंकचूल ने कहा-शीघ्र ही जाने का शब्द करो।