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बंकचूलचरियं
३६. आत्मसाधना ही साधुओं का प्रथम कार्य है । उपदेश तो उनका गौण कार्य है।
. ३७. जिस प्रकार ऊषर भूमि में प्रक्षिप्त बीज व्यर्थ जाता है उसी प्रकार बिना पात्र के दिया हुआ उपदेश भी निष्फल जाता है।
३८. जब मनुष्य धार्मिक उपदेश नहीं चाहते तब उनको दिया हुआ उपदेश सदा निरर्थक जाता है।
३९. इसीलिए तीर्थंकरों ने कहा है- द्रव्य, क्षेत्र, काल और मनुष्य को देखकर उपदेश देना चाहिए।
४०. चतुर्मास पर्यन्त किसी भी व्यक्ति ने उनकी संगति नहीं की । भाग्यहीन व्यक्ति रत्न पाकर भी उसका लाभ नहीं उठा पाते।
४१. संसार में साधुओं की संगति दुष्कर मानी गई है लेकिन उससे भी दुष्कर है संगति से लाभ उठाना।
४२. धीरे धीरे सम्पूर्ण पावस बीत गया। साधुओं के विहार का समय आ गया।
४३. तत्रस्थ सभी मुनि अपना भार लेकर आचार्य के साथ विहार करने के लिए शीघ्र तैयार हो गए।
४४. विहार के पूर्व आचार्य चन्द्रयश बंकचूल के पास आए और इस प्रकार बोले
४५. अब हम यहां से शीघ्र ही प्रस्थान कर रहे हैं। तुमने जो स्थान दिया था वह वापिस सम्भालो।
४६. उनके इस वचन को सुनकर उनकी दृढ़ प्रतिज्ञा से प्रभावित हुए बंकचूल
ने कहा
४७. यह सम्पूर्ण स्थान आपका ही है आप यहां सुखपूर्वक रहें और अन्यत्र न जाएं, यह मेरा निवेदन है।
४८. उसकी बात सुनकर आचार्य ने कहा- मुनियों को सदा एक स्थान में रहना नहीं कल्पता।