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एसीचरियं
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तृतीय सर्ग
१. राजा जब कुमार्गमागी होता है तब वह प्रजा को दुःख देता है । राजा जब सत्पथगामी होता है तब प्रजा को सुख देता है ।
२. राजा को सदा धर्मरत होना चाहिए— ऐसा ज्ञानियों ने कहा है । अत: राजा प्रदेशीको धार्मिक बनाने के लिए चित्र चेष्टा करने लगा ।
३. उसने राजा के पास आकर कहा - भेंट में चार कंबोजीय घोड़े आये हुए हैं । आप उनकी परीक्षा करें ।
४. चित्र का वचन सुनकर राजा ने कहा- घोड़ों को रथ में जुता कर शीघ्र यहाँ आओ । तत्पश्चात् अन्यत्र जाना ।
५. राजा की यह वाणी सुनकर चित्र जाकर के शीघ्र रथ में जुटे हुए घोड़ों राजा के पास लाया और चलने के लिए कहा ।
६. राजा शीघ्र ही विभूषित होकर उसके साथ रथ में बैठकर अपने नगर के
बाहर गया ।
७. जब वे सीमा से बहुत दूर चले गये तब राजा ने क्लान्त होकर चित्र को कहा— शीघ्र कहीं भी विश्राम करो ।
८. राजा की वाणी सुनकर चित्र रथ को घुमा कर राजा के मनोरम उद्यान वाले मृगवन में आता है ।
९. रथ को उसके बाहर ठहरा कर चित्र ने राजा से निवेदन किया- राजन् ! यह हमारा पुष्पित मृगवन है ।
१०. आप यहीं ही विश्राम करें और शीघ्र ही शरीर की खिन्नता को दूर करें । यहीं ही घोड़ों की क्लान्ति दूर हो- यही मेरी भावना है।
११. चित्र की यह वाणी सुनकर राजा ने उसे स्वीकार कर लिया । वह रथ से नीचे उतर कर अपना और घोड़ों का श्रम ( क्लान्ति) दूर करने लगा ।
१२. तब राजा की दृष्टि वन में स्थित मुनियों के ऊपर पड़ी। वह मन में सोचने लगा. ये 'जड़ कौन हैं ? यहाँ क्या कार्य करते है ?