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वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन
आत्मिक सुख नहीं है। आत्मिक सुख के लिये शरीर के वशवर्ती नहीं रहना चाहिये। तुम्हारा यह मार्ग पर्वत के समान ऊँचा - नीचा है। तुम इन्द्रिय-विषयों में सुख मानती हो, जब कि सुख आत्मा का गुण है। उसका इन्द्रिय-विषयों से कोई सम्बन्ध नहीं है ।
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ऐसा विरागयुक्त उत्तर पाकर भी वेश्या सुदर्शन को शय्या पर ले गई और अपने हाव-भाव तथा मधुर वचनों से उसे विचलित करने लगी किन्तु सुदर्शन के ऊपर उन उद्दाम काम - चेष्टाओं का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। इस प्रकार तीन दिन तक भाँति-भाँति के प्रयत्न करके जब देवदत्ता अपने उद्देश्य में सफल नहीं हुई तो वह आश्चर्य चकित होकर सुदर्शन की प्रशस्ति गाने लगी। उनकी जितेन्द्रियता, धीरता, नम्रता, दृढ़ता और सदाचार की प्रशंसा करती हुई वह बोली- 'मोहान्धकार के कारण. . मैंने आपके प्रति जो अपराध किया है, उसे क्षमा करें और धर्मयुक्त वचनों से मेरा कल्याण करें। मुनिराज सुदर्शन ने उसे सदाचार और धर्म का स्वरूप समझाकर शुभाशीर्वाद दिया, जिसे सुनकर देवदत्ता का तो सारा मोह नष्ट हो गया और पण्डिता दासी का भी अज्ञान दूर हो गया। वे दोनों ही मुनिराज सुदर्शन से दीक्षा लेकर 'आर्यिका' बन गई। मुनिराज सुदर्शन भी शमशान में जाकर आत्म-ध्यान में लीन हो गये। एक दिन देवरूप धारिणी व्यन्तरी (आत्मघातिनी रानी अभयमती) ने सुदर्शन को देख क्रोध में आकर उनसे अपशब्द कहे और निर्दयतापूर्वक व्यवहार किया, किन्तु वे इस नश्वर देह की चिन्ता न कर अजर अमर आत्मा के चिन्तन में लगे रहे। इसी अवस्था में उनके रहे-सहे राग-द्वेष भी समाप्त हो गये और वे केवली हो गये । पश्चात् आयुकर्म के अन्त में शेष कर्मों का नाश कर वे मोक्ष भी चले गये। (नवम सर्ग)
सुदर्शनोदय में शील की महिमा
'सुदर्शनोदय' के नायक 'सुदर्शन' के शील की महिमा सम्बन्धी प्रसंग अनेक पूर्ववर्ती कवियों द्वारा विरचित कथाकोशों एवं काव्यों में देखने को मिलते हैं। इनमें (1) हरिषेणाचार्यकृत बृहत्कथाकोश (2) मुनि नयनन्दिकृत सुदंसणचरिउ (3) रामचन्द्रमुमुक्षकृत पुण्याश्रव कथाकोश (4) नेमीदत्ताचार्यकृत