________________
आचार्यश्री ज्ञानसागर और उनके महाकाव्यों की समीक्षा
65
सुख देता है और न दुःख । अतएव मनुष्य को सुख-दुःख में एक-सी अवस्था धारण करनी चाहिये। सुख, आत्मा की अनुभूति का विषय है, वह राज्य प्राप्त करके नहीं मिल सकता। अतः राज्य तो आप स्वयं करें। मुझे तो अब केवल मोक्ष की चिन्ता करनी है।" . इस घटना के अनन्तर सुदर्शन ने वैराग्य लेने का निश्चय कर . लिया। घर जाकर यह निश्चय उसने मनोरमा को भी सुनाया। उसने विचारा कि विष्णु और शंकर को भी डिगाने वाली, सज्जनता का विनाश करने वाली, पापोत्पादक इस सांसारिक माया का परित्याग करना ही ठीक है। मनोरमा ने उसकी इच्छा का समर्थन करते हुये स्वयं भी उसी मार्ग का अनुशरण करने की इच्छा प्रकट की । मनोरमा के वचन सुनकर, सुदर्शन ने जिनालय में जाकर प्रसन्नतापूर्वक भगवान का भजन-पूजन और अभिषेक किया और वहीं पर स्थित विमलवाहन नाम के योगीश्वर के दर्शन कर उन्हीं से दीक्षा लेकर दिगम्बर मुनि बन गया। मनोरमा ने भी सर्व परिग्रह का परित्याग करके आर्यिका व्रत ले लिये।
वास्तविकता सामने आ जाने पर रानी अभयमती ने आत्महत्या कर ली। मरकर वह पाटलिपुत्र में 'व्यन्तरी देवी हो गई। रानी के आत्म-हत्या कर लेने पर पण्डिता दासी भी चम्पापुरी से भागकर पाटिलपुत्र की प्रसिद्ध वेश्या देवदत्ता के पास पहुँची। उसने वेश्या को सारा हाल सुनाकर वेश्या से भी सुदर्शन को विचलित करने के लिये कहा। (अष्टम सर्ग) दिगम्बर मुनि हो जाने पर सुदर्शन घोर तपश्चरण करते हुये पाटिलपुत्र पहुँचें । वहाँ घूमते हुए सुदर्शन को देखकर पण्डिता दासी ने देवदत्ता वेश्या को उकसाया। उस वेश्या ने सुदर्शन को अपने घर बुलवाया और अनेक प्रकार की काम-चेष्टाओं से उसे वश में करना चाहा। जब उसकी चेष्टायें व्यर्थ हुई तो वह सुदर्शन से बोली कि – 'इस अल्पवय में आपने यह व्रत क्यों अपनाया ? परलोक की चिन्ता तो वृद्धावस्था में की जा सकती है। इस समय इस सुन्दर शरीर का आप अनादर क्यों कर रहे हैं ?
यह सुनकर मुनिराज सुदर्शन बोले – 'यह शरीर ऊपर से सुन्दर दिखता है, अन्दर तो घृणित पदार्थों से भरा हुआ है। नश्वर शरीर का सुख