SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 64 वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन ले जाने में भेद खुल जाने का भय है। अतः इसके परित्याग के लिये 'त्रियाचरित' का प्रयोग करना उचित होगा। यह सुनकर रानी जोर-जोर से चिल्लाकर कहने लगी कि "द्वारपाल दौड़ो, जल्दी आओ, कोई दुष्ट यहाँ घुस आया है और मुझे सताना चाहता है।" (सप्तम सर्ग) सुदर्शन की यह घटना जब नगरवासियों के कानों में पड़ी तो, लोग तरह-तरह की बातें करने लगे। कुछ लोग कहने लगे कि यह तो बड़ी रहस्यमय घटना है। शमशान में स्थित सुदर्शन अन्तःपुर में कैसे प्रविष्ट हुआ? कुछ ने कहा कि सुदर्शन ऐन्द्रजालिक है तथा कुछ ने कहा कि यह राजा का षडयन्त्र प्रतीत होता है। राजा द्वारा चाण्डाल को सुदर्शन का वध करने का आदेश हुआ और उसे चाण्डाल के यहाँ पहुँचा.दिया गया। पर चाण्डाल ने जैसे ही तलवार का प्रहार किया, वैसे ही वह तलवार हार बनकर सुदर्शन के गले में सुशोभित होने लगी। यह वृत्तान्त जब राजा को ज्ञात हुआ, तो वह स्वयं ही सुदर्शन को मारने के लिये उद्यत हुआ लेकिन जैसे ही उसने मारने के लिये तलवार ली, वैसे ही आकाशवाणी हुई कि - "यह अपनी स्त्री मनोरमा से ही परम सन्तुष्ट , जितेन्द्रिय तथा सब प्रकार से निर्दोष है। दोषी तो तुम्हारे ही घर का है। अतएव उचित प्रकार से दोषी का निरीक्षण करो।" इस आकाशवाणी को सुनते ही राजा का सम्पूर्ण मोह नष्ट हो गया। वह सुदर्शन की भाँति-भाँति से स्तुति करके उनके चरण पकड़कर उसी से राज्य करने का निवेदन करने लगा। राजा की बात सुनकर सुदर्शन ने कहा- 'राजन्! मेरे प्रति जो कुछ भी हुआ है, उसमें आपका कोई दोष नहीं है। यह तो सब मेरे पूर्वोपार्जित कर्मों का फल है। आप तो मुझ अपराधी को दण्ड ही दे रहे थे, जो आपके लिये उचित था, किन्तु मैं किसी को भी अपना शत्रु या मित्र नहीं समझता हूँ। इस घटना का मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। महारानी और आप तो मेरे माता-पिता हैं। आपने मेरे साथ यथोचित व्यवहार किया है। प्रत्येक पुरूष को चाहिये कि वह मोक्ष-प्राप्ति हेतु धैर्य पूर्वक मद-मात्सर्य का परित्याग करे। यह प्राणी स्वानुभूति विषयक सुख-दुःख का स्वयं उत्पादक है। अन्य कोई उसे न तो
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy