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आचार्यश्री ज्ञानसागर और उनके महाकाव्यों की समीक्षा
सुखम्” (सुखार्थी के लिये विद्या कहाँ है, और विद्यार्थी के लिये सुख कहाँ) उनका यह उत्तर सुनकर सब स्तब्ध रह जाते और मन ही मन उनके स्वाभिमान की प्रशंसा करते। गुरूजन व मित्र
विद्यार्थी भूरामल को सर्वप्रथम धार्मिक व लौकिक शिक्षा देने वाले गुरूवर श्री जिनेश्वरदास थे और धर्मशास्त्र के अध्यापक पं. उमरावसिंह जी थे जो कालान्तर में ब्रह्मचारी ज्ञानानन्द जी के नाम से प्रसिद्ध हुए।' आचार्यश्री ने अपने ग्रन्थों के मंगलाचरण में गुरूवन्दना में इन्हीं को स्मरण किया है। इन्होंने अपने ग्रन्थों में कहीं भी मित्रों का उल्लेख नहीं किया। महाविद्यालय में इनके सहपाठी पं. बंशीधर जी, पं. गोविन्दराय जी और पण्डित तुलसीराम जी थे। कार्यक्षेत्र
अध्ययन के बाद ये अपने ग्राम (राणोली) लौटे। उनके सामने कार्यक्षेत्र को चुनने की समस्या थी। एक ओर तो अध्ययन-अध्यापन के प्रति रूचि और दूसरी ओर परिवार की शोचनीय परिस्थिति। इन दोनों कार्यों के अतिरिक्त स्वाध्याय में उनका अधिकांश समय व्यतीत होता था। कर्मकांड में उनका विश्वास नहीं था। साहित्य साधना
अध्यापन के साथ-साथ भूरामल जी साहित्य-साधना में लगे । रहे। उन्होंने संस्कृत तथा हिन्दी में लगभग 20 ग्रन्थ लिखे हैं, जो इस प्रकार हैं -