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40 वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन शिक्षा-दीक्षा
बाल्यकाल से ही भूरामल की अध्ययन के प्रति रूचि थी। सर्वप्रथम कुचामन के श्री पं. जिनेश्वरदास जी ने राणोली ग्राम में ही इन्हें धार्मिक और लौकिक शिक्षा दी। पर उनकी उच्च शिक्षा का प्रबन्ध गांव में न हो सका। इसी बीच इस परिवार पर एक महा-विपत्ति आ गई। जब छगनलाल की आयु 12 वर्ष और भूरामल जी की 10 वर्ष थी तभी उनके पिता चतुर्भुज की वि. सं. (सन् 1092 ई.) में मृत्यु हो गई। पिता की मृत्यु हो जाने से बालक भूरामल की पारिवारिक अर्थ-व्यवस्था बिगड़ गई। फलतः भूरामल के अध्ययन में बाधा उपस्थित हो गई। भूरामल के लघुभ्राता देवीदत्त का जन्म पिता की मृत्यु के बाद हुआ। परिवार के भरण-पोषण के लिये बाल्यावस्था में ही भूरामल के बड़े भाई छगनलान को घर से निकलना पड़ा। आजीविका की खोज में वे गया (बिहार) जी पहुंचे और एक जैन व्यापारी की दुकान में नौकरी कर ली। शिक्षा-प्राप्ति के साधनों के अभाव में दुःखी होकर भूरामल भी बड़े भाई छगनलाल के पास गयाजी गए और वे भी वहाँ किसी सेठ की दुकान में काम खोजने लगे। एक वर्ष के इस विपन्नता के अंधकार में आशा की किरण स्वरूप स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसी के छात्रों का वहाँ आना हुआ। पढ़ने की तीव्र लालसा के साथ 15 वर्ष की अल्प आयु में ही भूरामल बनारस चले गये। वहाँ स्याद्वाद महाविद्यालय में संस्कृत व जैनसिद्धान्तों का अध्ययन कर ज्ञान प्राप्त किया और क्वीन्स कॉलेज काशी से शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण की।
भूरामल जी मानना था कि मात्र परीक्षा पास करने से नहीं अपितु सभी ग्रन्थों का आद्योपांत अध्ययन कर उन्हें आत्मसात् करने से ही सच्चा ज्ञान प्राप्त होता है। अर्थोपार्जन हेतु उन्होंने कुछ दिन बनारस की सड़कों, हाटों में गमछे भी बेचे, मगर उन्होंने वाराणसी का स्नातक बन कर ही चैन लिया। भूरामल की अध्ययन के प्रति लगनशीलता एवं परिश्रम देख स्याद्वाद महाविद्यालय के अधिष्ठाता प्रसन्न होकर भूरामल जी से गमछे बेचने का काम छोड़ने को कहते तो वे मुस्कुराकर कह देते कि आप ही ने तो सिखलाया है- “सुखार्थी चेत् कुतो विद्या, विद्यार्थी चेत् कुतो