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32 वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन जयमित्तहल्ल विरचित, वर्धमान काव्य
जयमित्तहल्ल कवि ने अपभ्रंश भाषा में वर्धमानकाव्य की रचना की है। यह चरित दिगम्बर परम्परानुसार ही है फिर भी कुछ नवीनीकरण प्राप्त होता है। दिगम्बर साहित्य में भगवान के केवलज्ञान होने पर 66 दिन तक दिव्य- ध्वनि नहीं खिरने का तो उल्लेख है, पर उस समय उनके विहार का उल्लेख नहीं है। वर्धमान काव्य कवित्व की दृष्टि से बहुत उत्तम है। कवि ने जन्माभिषेक के समय मेरू-कम्पन की घटना का वर्णन रोचक शैली में इस प्रकार किया है - . लइवि करि कलसु सोहम्म तियसाहिणा, पेक्खि जिणदेहु संदेहु किउ णियमणा। हिमगिरिंदत्थ सरसरिसु गंभीरओ, गंगमुह पमुह सुपवाह बहुणीरओ।। खिवमि किम कुंभु गयदंतु कहि लमई. सूर बिंबुब्ब आवरिउ णह अमई। सक्कु संकंतु तयणाणि संकधिओ, कणयगिरि सिहरू चरणंगुलचप्पिओ।।
जैसे ही सौधर्मेन्द्र कलशों को लेकर अभिषेक करने के लिये उद्यत हुआ, त्यों ही उसे मन में शंका हुई कि भगवान तो बिल्कुल बालक हैं। वे इतने विशाल कलशों के जल के प्रवाह को मस्तक पर कैसे सह सकेंगे ? तभी तीन ज्ञानधारी भगवान ने इन्द्र की शंका के समाधानार्थ चरण की एक अंगुली से सुमेरू को दबा दिया, जिससे शिलायें गिरने लगी, वनों में निर्द्वन्द बैठे गज चिंघाड़ उठे, सिंह गर्जना करने लगे और सारे देवगण भय से व्याकुल होकर इधर-उधर देखने लगे। सारा जगत क्षोभ को प्राप्त हो गया। तब इन्द्र को अपनी भूल ज्ञात हुई और अपनी निन्दा करता हुआ तथा भगवान की जय-जयकार कर क्षमा माँगने लगा कि हे अनंतवीर्य! सुख के भण्डार! मुझे क्षमा करो, तुम्हारे बल का प्रमाण कौन जान सकता
कवि ने इस बात का उल्लेख किया है कि 66 दिन तक दिव्य वनि नहीं खिरने पर भी भगवान भूतल पर विहार करते रहे। यथा -
णिग्गंथाइय समउ भरंतह, केवलि किरणहो धर विहरत। • गय छासट्ठि दिगंतर जामहि, अमराहिउमणि चिंतई तामहि।।