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वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन अपभ्रंश भाषा में इस की रचना की है । इनका समय विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी है । महावीर की कथा प्राचीन ग्रन्थों के आधार पर ही है फिर भी उनके विशिष्ट व्यक्तित्व का प्रभाव इस रचना में स्थान-स्थान पर दृष्टिगोचर होता है। कुछ विशिष्ट स्थलों के उद्धहरण इस प्रकार हैं भ. ऋषभदेव के द्वारा अपने अन्तिम तीर्थंकर होने की बात सुनकर मारीचि विचारता है -
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घत्ता - णिसुणिवि जिणवुत्तउ मुणिवि णिरूत्तउ, संतुट्ठउ मरीइ समणी । जिण - भणिओ ण वियलइ, कहमिव ण चलइ हं होसमि तित्थय जणी । । महावीरचरित पत्र 17 |
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धू ने त्रिपृष्ठ के भव का वर्णन करते समय युद्ध का और उसके नरक में पहुँचने पर वहाँ के दुःखों का बहुत विस्तार से वर्णन किया है। मृग-घात करते समय सिंह को देखकर चारण मुनि-युगल उसे सम्बोधन करते हुए कहते हैं -
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जग्गु जग्गु रे केत्तर सोवहि, तउ पुण्णे मुणि आयउ जोवहिं । एक्क जि कोड़ाकोड़ी सायर, गयउ भ्रमेत कालु जि भायर ।।
महावीरचरित्र पत्र 25 |
अर्थात् हे भाई, जाग - जाग। कितने समय तक और सोवेगा ? पूरा एक कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण काल तुझे परिभ्रमण करते हुये हो गया । आज तेरे पुण्य से यह मुनि - युगल आये हैं, सो देखो और आत्महित में लगो । भ. महावीर का जीव स्वर्ग से अवतरित होकर संसार के स्वरूप का विचार करते हुये वैराग्य भावों की वृद्धि के साथ जब त्रिशलादेवी के गर्भ में आया, इस ही मार्मिक चित्रण किया है।
पिक के समय सौधर्म इन्द्र दिग्पालों को पाण्डुक शिला के सर्व ओर प्रदक्षिणा राम से अपनी-अपनी दिशा में बैठा कर कहता हैणिय णिय दिस रक्खहु सावहाण, मा को वि विसउ सुरू मज्झणण ।
ईधू ने जन्माभिषेक के समय सुमेरू के कम्पित होने का उल्लेख किया है। साथ ही अभिषेक से पूर्व कलशों में भरे जल को इन्द्र के द्वारा