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श्रवणधर्म में तीर्थकर परम्परा और म. महावीर तथा महावीर चरित-साहित्य.....
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परिच्छेद-4 अपभ्रंश-साहित्य में महावीरचरित-परम्परा
अपभ्रंश साहित्य में इतिहास में भाषा एवं सांस्कृतिक दृष्टि से छठी शताब्दी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रही है। छठी शताब्दी के पूर्व का युग अपभ्रंश का आदिकाल रहा है तथा परवर्ती काल भाषा तथा साहित्य का संक्रमण काल रहा। लोक-साहित्य की कई विशेषतायें अपभ्रंश साहित्य में परलक्षित होती हैं।
अपभ्रंश-साहित्य में पौराणिक महाकाव्य, चरितकाव्य, कथाकाव्य, प्रेमाख्यानक काव्य, खण्डकाव्य, गीतकाव्य आदि काव्य-विधाएँ लक्षित होती हैं। तीर्थंकर महावीर और उनके अनुयायी श्रमणों (साधुओं) में दृष्टान्त तथा निदर्शन रूप में कथा कहने की प्रवृत्ति अत्यन्त व्यापक थी। भ. महावीर की पावन जीवन-कथा भी अपभ्रंश साहित्य में निबद्ध हई है। अपभ्रंश के अनेक विद्वान मनीषियों ने भ. महावीर के जीवनचरित से सम्बन्धित काव्यों की सर्जना की है। दिगम्बर विद्वान महाकवि पुष्पदंत का 'तिसिहि-महापुरिस गुणालंकारू' एक महत्त्वपूर्ण रचना है। अपभ्रंश भाषा का सर्वोत्कृष्ट और सर्वाधिक प्राचीन काव्य 'स्वयंभूकृत पउमचरिउ' माना जाता है। जयमितहल्लकृत 'वड्ढमाण-कव्वु' नाम का ग्रन्थ भी प्राप्त होता है, जिसमें 11 संधियां हैं तथा भ. महावीर के जीवन पर प्रकाश डाला गया है। अपभ्रंश-साहित्य में कुछ निम्न रचनायें प्राप्त होती हैं। 'वड्ढमाण कहा'
__यह नरसेन की सुन्दर कृति है, जो विक्रम सं. 1512 के लगभग लिखी गई है। आचार्य श्री अभयदेव रचित अपभ्रंश भाषा के महावीर-चरित का भी उल्लेख जैनग्रन्थावली में है। रईधू विरचित महावीरचरित
"महावीर चरित' ग्रन्थ के रचयिता महाकवि रईधू हैं। इन्होंने