________________
श्रवणधर्म में तीर्थकर परम्परा और भ. महावीर तथा महावीर चरित-साहित्य...... । महाकाव्य के रूप में प्रतिष्ठापित है। युग प्रवर्तक प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की तरह ही अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर के जीवन-चरित पर यह काव्य आधारित है। इसके कथानक का मूलाधार महापुराण है। इस काव्य के नायक भगवान महावीर में नायक के सभी गुण विद्यमान है। वे परम धार्मिक, अद्भुत सौन्दर्यशाली, सांसारिक राग से दूर, दुखियों का कल्याण करने वाले हैं।
महाकवि ज्ञानसागर ने इस महाकाव्य में विविध स्थलों और वृत्तान्तों का यथास्थान वर्णन किया है। एक ओर कुण्डनपुर का वैभवपूर्ण वर्णन एक समृद्ध नगर की झांकी प्रस्तुत करता है, तो दूसरी ओर समुद्र-वर्णन के साथ हिमालय, विजयार्द्ध और सुमेरू पर्वतों का प्रासंगिक उल्लेख किया है। वीरोदय का सर्वाधिक मनोहारी दृश्य उसका ऋतुवर्णन है। वीरोदय में तीन संवाद भी विशेष हैं। (अ) रानी प्रियकारिणी और राजा सिद्धार्थ का संवाद । (ब) रानी प्रियकारिणी और देवी-संवाद । (स) राजा सिद्धार्थ और वर्धमान-संवाद।
भारतीय साहित्य में भगवान महावीर की चरित-परम्परा का आश्रय लेकर कवियों तथा आचार्यों ने विभिन्न भाषाओं में चरित-काव्य लिखे हैं। प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश में लिखे गये चरित-काव्यों की परम्परा का मूल आधार भगवान महावीर का जीवन-चरित है।
काव्यात्मक दृष्टि से कवि ने वीरोदय महाकाव्य में श्रृंगाररस, । अद्भुतरस, वात्सल्यभाव और भक्ति का यथास्थान वर्णन किया है, किन्तु अंगीरस का स्थान शान्तरस को ही प्राप्त है। शेष रस एवं भाव इस रस के अंग ही हैं। इसमें सांस्कृतिक एवं सामाजिक विवेचन, वर्ण-व्यवस्था, परिवार-व्यवस्था, अनुशासन के साथ जनतान्त्रिक पद्धति का विश्लेषण तथा व्रत, उपवास, शिक्षा व सहिष्णुता का भी महत्त्वपूर्ण विवेचन है।
काव्य के परिशीलन से ज्ञात होता है कि भगवान महावीर ने बाह्य योद्धाओं से युद्ध नहीं किया बल्कि आन्तरिक शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर मोक्षलक्ष्मी का वरण किया है। इस प्रकार वीरोदय में नायक का ही अभ्युदय (पूर्ण उत्कर्ष) दिखलाया है। यही महाकाव्य का आदर्श है। इसी से महाकाव्य के नाम "वीरोदय' की सार्थकता भी सिद्ध होती है।