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वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन है। काव्य की दृष्टि से यह ग्रन्थ एक सफल रचना है। बाणभट्ट, माघ और भारवि के संस्कृत काव्यों का पूर्ण प्रभाव परिलक्षित होता है। महाराष्ट्री प्राकृत के अतिरिक्त बीच-बीच में अपभ्रंश और संस्कृत के पद्य भी पाये जाते हैं। देशी शब्दों के स्थान पर तद्भव और तत्सम शब्दों के प्रयोग अधिक मात्रा में हैं। छन्दों में विविधता है। अन्य चरित काव्य
अन्य चरित-काव्यों में सोमप्रभसूरि का 9000 गाथा-प्रमाण सुमतिनाहचरियं, वर्धमानसूरि के आदिनाहचरियं और मनोरमाचरियं, देवेन्द्रसूरि का कण्हचरियं एवं जिनेश्वरसूरि का चंदप्पहचरियं। इसमें 40 गाथाएँ हैं और कण्हचरियं (कृष्णचरित) में 1163 गाथाएँ हैं। इन चरित-काव्यों में नायक के चरित का क्रमिक विकास दिखलाया गया है। सूक्तियाँ - 1. आत्मा यथा स्वस्य तथा परस्य – (वीरोदय सर्ग. 17 श्लोक
6) जैसा आत्मा अपनी समझते हो वैसी ही दूसरे की भी
समझना चाहिये। 2. अन्यस्य दोषे स्विदवाग्विसर्गः – (वीरोदय सर्ग. 18, श्लोक 38)
दूसरों के दोष मत कहो। यदि कहने का अवसर भी आवे - तो भी मौन धारण करो। 3. उन्मार्गगामी निपतेदनच्छे – (वीरोदय सर्ग. 18 श्लोक 42) जो
सन्मार्गगामी बनेगा वह उन्नति के पद को प्राप्त होगा।' किन्तु जो इसके विपरीत उन्मार्गगामी बनेगा वह संसार के
दुरन्त गर्त में गिरेगा। सन्दर्भ -
1. प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृ. 308.312 | 2. डॉ. हर्मन जेकोबी द्वारा भावनगर से प्रकाशित, सन् 1914 ई. 3. मुनिराज राजविजय जी द्वारा सम्पादित, जैन विविध साहित्य शास्त्रमाला, सन् 1913 । 4. सुपासनाहचरियं प्रशस्ति, गा. 15-16 |