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श्रवणधर्म में तीर्थंकर परम्परा और भ. महावीर तथा महावीर चरित - साहित्य......
गुरू का नाम जगच्चंद्रसूरि है । देवेन्द्रसूरि को गूर्जर राजा की अनुमति से वस्तुपाल मंत्री के समक्ष अर्वुदगिरि (आबू) पर सूरिपद प्रदान किया था। इनका समय लगभग ई. सन् 1270 का है। इसमें चार हजार पद हैं, जो आठ अधिकार और सोलह उद्देश्यों में विभक्त हैं । इस चरितकाव्य का नाम नायिका के नाम पर रखा गया है। इस काव्य की नायिका सुदर्शना विदुषी और रूप-माधुर्य से युक्त है । कवि ने इसमें जीवन के कई तथ्यों का स्फोटन किया है। जीवन की तीन विडम्बनाओं का कथन करते हुये
कहा गया है
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तक्कविहूणो विज्जो लक्खणहीणो य पंडिओ लोए । भावविहूणो धम्मो तिण्ण वि गरूई विडम्बणया । ।
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तर्कहीन विद्या, लक्षण - हीन ( व्याकरण - शास्त्र हीन) पंडित और भावविहीन धर्म ये तीन जीवन की महान बिडम्बनाएँ समझनी चाहिये । इस ग्रन्थ की भाषा अपभ्रंश और संस्कृत से प्रभावित है । बीच-बीच में संस्कृत के श्लोक भी पाये जाते हैं ।
कुम्मापुत्तचरियं
कुम्मापुत्तचरियं काव्य में राजा महेन्द्रसिंह और रानी कूर्मा के पुत्र धर्मदेव के पूर्व जन्म एवं वर्तमान जन्म की कथावस्तु वर्णित है। इसके रचयिता अनन्तहंस हैं, जिनका समय 16वीं शती माना जाता है। इनके गुरु का नाम जिनमाणिक्य कहा गया है। ये तपागच्छीय आचार्य हेमविमल की परम्परा में हुए हैं। इनकी दो गुजराती रचनाएँ भी उपलब्ध हैं। इस ग्रंथ में 198 पद्य हैं। इस चरित - काव्य में दान, शील, तप और भाव- - शुद्धि की महत्ता वर्णित है। शैली और भाषा दोनों प्रौढ़ हैं ।"
महावीरचरियं (गद्य-पद्यमय )
महावीरचरियं गुणचन्द्रसूरि द्वारा रचित है । ये प्रसन्नचन्द्रसूरि के शिष्य थे। इन्होंने सम्वत् 1139 में इसकी रचना की । इस चरित -काव्य में आठ सर्ग (प्रस्ताव) हैं । प्रारम्भ के चार सर्गों में भगवान महावीर के पूर्वभवों का वर्णन है और बाद में चार सर्गों में उनके वर्तमान भव का वर्णन