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________________ 309 भगवान महावीर के सिद्धान्तों का समीक्षात्मक अध्ययन लक्षणों पर दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट होता है कि सम्यग्दर्शन के चार प्रमुख कारण है। 1. तत्त्वार्थ का श्रद्धान करना। 2. सच्चे देव, गुरू, धर्म का श्रद्धान करना। 3. अपना और पर का यथार्थ स्वरूप जानना। 4. निज स्वरूप का निश्चय करना। वीरोदय में सम्यक्त्व स्वरूप - उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य के उद्धरण से स्पष्ट किया गया है - स्यूतिः पराभूतिरिव ध्रवत्वं पर्यायतस्तस्य यदेकतत्त्वम् । नोत्पद्यते नश्यति नापि वस्तु सत्त्वं सदैतद्विदधत्समस्तु।। 16।। __-वीरो.सर्ग.19। जैसे पर्याय की अपेक्षा वस्तु में स्यूति (उत्पत्ति) और पराभूति (विपत्ति या विनाश) पाया जाता है, उसी प्रकार द्रव्य की अपेक्षा ध्रुवपना भी उसका एक तत्त्व है, जो कि उत्पत्ति और विनाश में बराबर अनुस्यूत रहता है। उसकी अपेक्षा वस्तु न उत्पन्न होती है और न विनष्ट होती है। इस प्रकार उत्पाद व्यय और ध्रौव्य- इन तीनों को धारण करने वाली वस्तु को यथार्थ सम्यक्त्व स्वरूप मानना चाहिये। सम्यग्ज्ञान पदार्थ के राणार्थ स्वरूप को जानना सम्यग्ज्ञान है। निश्चय नय से सम्यग्ज्ञान आत्मा का निज स्वरूप है। यह स्व–पर प्रकाशक है और सदैव संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित होता है। सम्यक्त्व के द्वारा दृष्टि की शुद्धता हो जाने और आप्त, आगम तथा तत्वार्थ का सत् श्रद्धान हो जाने के बाद मोक्षमार्ग पर आगे बढ़ने के लिए दूसरी साधना सम्यग्ज्ञान की है। सम्यग्दर्शन होने के बाद ही ज्ञान में सम्यक्-रूपता आती है। इसलिए सम्यग्दर्शन के बाद ज्ञानाराधना का क्रम बताया गया है। दर्शन और ज्ञान में अत्यन्त सूक्ष्म अन्तर है, जिसे कारण
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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