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310 वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन और कार्य का सम्बन्ध कहा जा सकता है। जैसे घन-पटल के दूर होते ही सूर्य का प्रताप और प्रकाश प्रकट हो जाते हैं, उसी प्रकार आत्मा से मोहान्धकार हटते ही दर्शन और ज्ञान प्रकट हो जाते हैं।
सम्यग्ज्ञान का प्रतिपादन करते हुए आ. समन्तभद्र ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में लिखा है कि वस्तु-स्वरूप का अन्यून, अनतिरिक्त, याथातथ्य, विपरीतता तथा संदेह रहित ज्ञान सम्यग्ज्ञान है। आ. अमृतचन्द्र ने लिखा है कि जिन्होंने सम्यक्त्व का आश्रय लिया है, जो आत्महित के इच्छुक हैं, उन्हें आगम की आम्नाय और प्रमाण-नय रूप युक्ति से प्रयत्न पूर्वक वस्तु-स्वरूप का विचार कर नित्य ही सम्यग्ज्ञान की उपासना करनी चाहिए।
यद्यपि सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन के साथ ही उत्पन्न होता है, फिर भी दोनों में दीपक और प्रकाश की तरह कारण और कार्य का भेद है। इसलिए वस्तु के अनेकान्तात्मक स्वरूप को संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय रहित जानने का अध्यवसाय करना चाहिए। श्री नेमिचन्द्रसूरि ने लिखा है कि अपने को और पर को ठीक-ठीक जानना (संशय, विमोह और भ्रम से रहित वस्तु के स्वरूप को पहचानना) सम्यग्ज्ञान है। संशय-विमोह-बिभ्रम-विवज्जियं अप्प-परसरूवस्स। ग्रहणं सम्मण्णाणं सायारमणेयभेयं तु।।
-द्रव्यसंग्रह. गा. 421 श्रावकाचार सारोद्धार में कहा है कि जो जीवों को त्रिकाल और त्रिजगत में तत्त्वों के हेय और उपादेय का प्रकाश करता है, वह सम्यग्ज्ञान
है।
वीरोदय में सम्यग्ज्ञान – का लक्षण इस प्रकार किया है - लभेत मुक्तिं परमात्मबुद्धिः समन्ततः सम्प्रतिपद्य शुद्धिम्। इत्युक्तिलेशेन स गौतमोऽत्र बभूव सद्योऽप्युपलब्धगोत्रः ।। 28 ।।
-वीरो.सर्ग:14।