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________________ 297 भगवान महावीर के सिद्धान्तों का समीक्षात्मक अध्ययन जिना जयन्तूत्तमसौख्यकूपाः सम्मोहदंशाय समुत्थधूपाः। विश्वस्य विज्ञानि पदैकभूपा दर्पादिसाय तु तार्क्ष्यरूपाः ।। 1।। -वीरो.सर्ग.201 जो उत्तम अतीन्द्रिय सुख के भण्डार हैं, मोह-रूप डांस-मच्छरों के लिए जो दशांगी धूप से उठे धूम्र के समान है, जिन्होंने विश्व के समस्त ज्ञेय पदार्थों को जानकर सर्वज्ञ पद पा लिया है और जो दर्प (अहंकार) मात्सर्य आदि सो के लिए गरूड़-स्वरूप हैं, वही सच्चे देव हैं। देव भक्ति वीतरागी अरिहन्त और सिद्धों की भक्ति किसी सांसारिक-कामन की पूर्ति हेतु नहीं की जाती, अपितु उन्हें आदर्श पुरूषोत्तम मानकर केवल उनके गुणों का चिन्तवन किया जाता है और वैसा बनने की भवना भाई जाती है। फलतः भक्त के परिणामों में स्वभावतः निर्मलता आती है। इसमें ईश्वर-कृत कृपा आदि अपेक्षित नहीं है। देवमूर्ति, शास्त्र एवं गुरू के आलम्बन से भक्त अपना कल्याण करता है। अतः व्यवहार से उन्हें कल्याण का कर्ता कहते हैं, निश्चय से नहीं; क्योंकि कोई द्रव्य अन्य द्रव्य का कर्ता नहीं है, सभी द्रव्य अपने-अपने कर्ता हैं। उपादान में ही कर्तृत्व है, निमित्त उसमें सहायक हो सकता है, क्योंकि व्यावहारिक भाषा में पर-निमित्त को कर्ता कहते हैं। अध्यात्म की भाषा में पर-पदार्थ निमित्त मात्र है, कर्त्ता नहीं। अतएव भक्ति-स्त्रोतों में फल-प्राप्ति की जो भावनायें की गई हैं, वे औपचारिक व्यवहार नयाश्रित कथन हैं। भावों की निर्मलता ही कार्य-सिद्धि में साधक होती है। वीतराग की भक्ति से भावों में निर्मलता आती है। फलस्वरूप कर्म-रज के हटने से भक्त्यनुसार फलप्राप्ति होती है। मोक्षार्थी को सांसारिक लाभ की कामना नहीं करना चाहिए; क्योंकि इससे संसार-स्थिति बढ़ती है, मुक्ति नहीं होती अरहंत-सिद्धचेदियपवयण-गणणाण-भत्ति संपण्णो। बंधदि पुण्णं बहुसो ण दु सो कम्मक्खयं कुणदि।। -पंचा.गा. 166 |
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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