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296 वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन
परमेष्ठी परंज्योति विरागो विमलः कृती। सर्वज्ञोऽनादि-मध्यान्तः सार्वः शास्तोपलाल्यते।। 7।। अनात्मार्थ बिना रागैः शास्ता शास्ति सतो हितम् । ध्वनन् शिल्पिकरस्पर्शान्मुरजः किमपेक्षते।। 8 ।।
-रत्न.श्रा.अ.1। राग, द्वेष और मोह युक्त जीव सर्वज्ञ नहीं हो सकता। इसलिए वह मोक्षमार्ग का उपदेष्टा भी नहीं हो सकता। मोक्षमार्ग के उपदेश के लिए कर्म रहित होना आवश्यक है। कर्म-रहित होने पर ही वह सर्वज्ञ हो सकता है। सोमदेव ने भी लिखा है कि जो सर्वज्ञ है, सभी लोकों का स्वामी है, सभी दोषों से रहित है, सभी का हित करने वाला है, उसे आप्त कहते हैं। सर्वज्ञं सर्वलोकेशं सर्वदोष-विवर्जितम् । सर्वसत्वहितं प्राहुराप्तमाप्तमतोचिताः।।
जो त्रिकालवर्ती गुण और पर्यायों से युक्त समस्त द्रव्यों को तथा समस्त लोकालोक को प्रत्यक्ष जानता है, वह सर्वज्ञ देव हैं।
जो जाणदि पच्चक्खं तिलोय-गुण-पज्जएहिं संजुत्तं। लोयालोयं सयलं सो सव्वण्हू हवे देओ।।
'दिव्' धातु से 'देव' शब्द बनता है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा की टीका में पंचपरमेष्ठी को 'देव' कहा है – 'जो परमसुख में क्रीड़ा करता है, जो कर्मों को जीतने के प्रयत्न में संलग्न है अथवा जो करोड़ों सूर्यों से भी अधिक तेज से देदीप्यमान है, वह देव है। जैसे- अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु । पंचाध्यायी में रागादि और ज्ञानावरणादि कर्मों के अभावजन्य अनन्तचुष्ट्य से सम्पन्न आत्मा को 'देव' कहा है -
दोषो रागादिसद्भावः स्यादावरणं च कर्म तत् । तयोरभावोऽस्ति निःशेषो यात्रासौ देव उच्चते।।
पं.अ.उ. 6031 वीरोदय में देव के स्वरूप - का उल्लेख इस प्रकार किया गया है -