SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 319
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 290 वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन (अ) देशयामि समीचीनं, धर्म कर्मनिवर्हणम। संसार दुःखतः सत्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे।। 2 ।। ___-रत्नकर. श्रा.। (ब) धम्मो वत्थुसहावो खमादिभावो य दसविहो धम्मो। रयणत्तयं च धम्मो जीवाणं रक्खणं धम्मो।। – कार्तिकेयानुप्रेक्षा 'धर्म' तो आत्मा का स्वभाव है। पर द्रव्यों में आत्मबुद्धि छोड़कर अपने ज्ञाता दृष्टा रूप स्वभाव का श्रद्धान, अनुभव (ज्ञान) और ज्ञायक स्वभाव में ही प्रवर्तन रूप जो आचरण है, वह धर्म है। जब उत्तमक्षमादि दशलक्षण रूप आत्म-परिणमन और रत्नत्रयरूप तथा जीवदया रूप आत्म-परिणति होती है तब अपनी आत्मा अपने आप ही धर्मरूप हो जाती सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचरित्र को धर्म कहते हैं। धर्म तीन नहीं है, अपितु इन तीनों की परिपूर्णता ही साक्षात् धर्म है। तत्त्वार्थसूत्र में आचार्य उमास्वामी ने लिखा है - " सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः" । -तत्त्वार्थसूत्र. 1/11 "उत्तमक्षमामार्दवार्जवशौच-सत्यसंयमतपस्त्यागाकिन्चन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः" - तत्त्वार्थ सूत्र.अ.9.सूत्र.6 धर्म शब्द एक वचन है। अतः धर्म दश नहीं हैं, अपितु दश धर्मों का एकत्व धर्म है। __यद्यपि दर्शन और धर्म या वस्तुस्वभावरूप धर्म और आचार-रूप धर्म दोनों अलग-अलग हैं, परन्तु इन दोनों का परस्पर में घन्ष्टि सम्बन्ध है। उदाहरण के लिए, जब आचाररूप धर्म आत्मा को परमात्मा बनने का मार्ग बतलाता है, तब यह जानना आवश्यक हो जाता है कि आत्मा और परमात्मा का स्वभाव क्या है ? दोनों में अन्तर क्या है और क्यों है ? जैसे सोने के स्वभाव से अनजान आदमी यदि सोने को सोधने का प्रयत्न भी
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy