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अध्याय - 6 भगवान महावीर के सिद्धान्तों का
समीक्षात्मक अध्ययन
परिच्छेद - 1 धर्म का स्वरूप
'धर्म' के स्वरूप के विश्लेषण में अनेक तत्त्व सामने आते हैं। जैसे अग्नि का जलाना धर्म है, पानी का शीतलता धर्म है, वायु का बहना धर्म है, उसी प्रकार आत्मा का 'चैतन्य' धर्म है। 'धर्म' शब्द के दो अर्थ हैं, एक वस्तु के स्वभाव को धर्म कहते हैं। दूसरा आचार या चारित्र को धर्म कहते हैं। जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस (मुक्ति) की प्राप्ति हो, उसे 'धर्म' कहते हैं। चरित्र से इनकी प्राप्ति होती है इसलिए चरित्र ही धर्म है।' वीरोदय में आचार्यश्री ने धर्म के स्वरूप को अभिव्यक्त करते हुए लिखा है कि मनुष्य जैसा व्यवहार स्वयं अपने लिए चाहते हैं, वैसा ही व्यवहार उसे दूसरे दीन-कायर पुरूषों के साथ करना चाहिए। यही एक तत्त्व धर्म का मूल है - यथा स्वयं वाञ्छति तत्परेभ्यः कुर्याज्जनः केवलकातरेभ्यः । तदेतदेकं खलु धर्ममूलं परन्तु सर्व स्विदमुष्य तूलम् ।। 6 ।।
-वीरो.सर्ग.16। आचार्य समन्तभद्र ने भी लिखा है,- “जो प्राणियों को पंच परावर्तन रूप संसार के दुःखों से निकाल कर स्वर्ग और मोक्ष के बाधा रहित उत्तम सुखों को प्राप्त करा देता है, वह धर्म है।" प्राणियों को संसार के दुःखों से निकाल कर स्वर्ग आदि सुखों को प्राप्त कराने के कारण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र धर्म है। यथा -