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भगवान महावीर के सिद्धान्तों का समीक्षात्मक अध्ययन करे, तो उसका प्रयत्न लाभकारी नहीं हो सकता। जो यह मानता है कि आत्मा नहीं है और न परलोक है, उसका आचार सदा भोग-प्रधान ही रहता है।
__ प्रकारान्तर से भी धर्म के दो भेद हैं एक साध्य रूप और दूसरा साधन रूप। परमात्मत्व साध्यरूप धर्म है और आचार (चारित्र) साधनरूप धर्म है, क्योंकि आचार/चारित्र के द्वारा ही आत्मा परमात्मा बनता है। धर्म का महत्त्व
धर्म की महत्ता को आंकना आसान नहीं है। पाश्चात्य विद्वानों ने इसे 'रिलीजन' कहा है। 'धर्म' की व्यापकता एवं गहनता को थोड़े शब्दों में बाँधकर उजागर नहीं किया जा सकता, फिर भी मनीषियों ने इसका विभिन्न शब्दों में मूल्यांकन करने का प्रयास किया है। यथा - सदाचरण, कर्तव्य, न्याय, सदगुण, नैतिकता, सत्कर्म आदि । प्रसिद्ध विद्वान मक्टागार्ट ने 'धर्म' की महत्ता पर प्रकाश डालते हुये कहा है - "धर्म चित्त का वह भाव है, जिसके द्वारा हम विश्व के साथ एक प्रकार के मेल का अनुभव करते हैं।' यद्यपि विद्वानों ने 'धर्म' की महत्ता प्रतिपादित की है, किन्तु तथ्यतः धर्म वही है, जिससे मानवता का कल्याण हो। महावीर ने मानव-कल्याण हेतु धर्म की उपयोगिता का उपदेश देते हुए कहा है कि जरा और मरण के प्रवाह में बहते हुए प्राणी के लिए धर्म ही मात्र दीप, प्रतिष्ठा, गति और उत्तम शरण है।
जरामरण वेगेणं बुज्झमाणाण पाणिणं। धम्मो दीवो पइट्ठाय गइसरणमुत्तमं ।। 13 ।।
-उत्तराध्ययन 23/68 | महावीर ने धर्म की महत्ता को परख कर स्पष्ट कहा था कि 'धर्मप्रचार के पवित्रतम अनुष्ठान में यथाशक्ति योग देकर आत्मोद्धार एवं परोद्धार करो। जन-जन के कल्याण हेतु जहाँ धर्म अपेक्षित है, वहीं स्वयं के लिए भी इसकी उपयोगिता है। महावीर ने आत्म-संयम हेतु भी धर्म की महत्ता का प्रतिपादन किया है। वे कहते हैं - मन बहुत ही साहसिक, रौद्र और दुष्ट अश्व है, चारों ओर दौड़ता है। इस अश्व को धर्म-शिक्षा द्वारा अच्छी तरह काबू में किया जा सकता है।