SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 315
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 286 वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन भरत के चक्रवर्तित्व प्राप्ति के बाद ये सन्यस्त हो गये, और लगातार बारह वर्षों तक तप करते रहे। सुडौल, सौम्य, विशाल शरीरधारी इस तपस्वी ने ऐसी समाधि लगाई कि वर्षा, जाड़ा और गर्मी से भी विचलित नहीं हुआ। चारों ओर पेड़-पौधे और लताएँ उग आयीं और शरीर के सहारे कँधों तक चढ़ गयीं। बाहुबलि का यही चित्र ललित कला में कलाकार ने उकेरा है। संसार को चकित करने वाली श्रवणबेलगोल की मूर्ति इसी महापुरूष की है, जो उन्मुक्त आकाश में निरालम्ब खड़ी सारे संसार को शान्ति का अमर-सन्देश दे रही है। प्रतीक-चित्र - जैनसाहित्य में उल्लेख है कि गर्भ में आने के पहले तीर्थंकर की माता सोलह स्वप्न देखती है। श्वेताम्बरों में चौदह स्वप्नों का वर्णन आता है। आचार्य ज्ञानसागर ने जिस मन्दिर का उल्लेख किया है, उसमें ये सोलह स्वप्न भित्ति पर चित्रित किये गये थे – ऐरावत हाथी/ वृषभ/सिंह/ लक्ष्मी/लटकती पुष्प मालायें/चन्द्र-सूर्य/ मत्स्ययुगल/पूर्ण कुम्भ/ पद्यसरोवर/सिंहासन/समुद्र/ फणयुक्त सर्प/ प्रज्जवलित अग्नि/रत्नों का ढेर/ देव विमान। एक वस्तु की 16 कलाएँ मानी जाती हैं। अतएव चार दिशाओं की चौसठ कलाएँ स्वतः ही हो जाती हैं। रानी प्रियकारिणी चौसठ कलाओं में पारंगत थी। जैनशास्त्रों के अनुसार तीर्थकर को केवलज्ञान होने के उपरान्त इन्द्र कुवेर को आज्ञा देकर एक विराट सभामंडप का निर्माण कराता है, जिसमें तीर्थंकर का उपदेश होता है। इसी सभामंडप को समवशरण कहा जाता है। प्राचीन जैन-चित्रों में समवशरण का सुन्दर अंकन है। झरोखों में झाँकती कामिनियों का भी एक स्थान पर चित्रण है। चित्रकला प्राचीन भारत में चित्रकला का भी पर्याप्त विकास हआ है। चित्रकार चित्र बनाने में कूँची और विविध रंगों का प्रयोग करते थे। चित्र, भित्तियों और पट्टफलक के ऊपर बनाये जाते थे। किसी परिव्राजिका ने चेटक की कन्या राजकुमारी सुज्येष्ठा का चित्र एक फलक पर चित्रित कर राजा श्रेणिक को दिखाया था, जिसे देखकर राजा अपनी सुध-बुध भूल गया था। मिथिला के मल्लदत्त कुमार ने हाव-भाव, विलास और श्रृंगार
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy