SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 314
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वीरोदय महाकाव्य का सांस्कृतिक एवं सामाजिक विवेचन 285 परिच्छेद - 3 कला चित्रण 'कला' शब्द 'संवारना' अर्थ वाली कल् धातु के कच् एवं टाप् प्रत्ययों के संयोग से निष्पन्न हुआ है। अतः "कला" का शाब्दिक अर्थ है"पदार्थ को सँवारने वाली।" किसी अमूर्त पदार्थ की सुरूचि के साथ सुन्दर एवं मूर्त रूप प्रदान करने वाली चेष्टा का नाम कला है। भारतीय एवं पाश्चात्य अनेक मनीषियों ने कला के विषय में अपने-अपने विचार प्रकट किए हैं। भारत के प्राचीन विद्वानों ने चौसठ कलाएँ गिनायी हैं पर पाश्चात्य विद्वानों ने कलाओं को केवल दो वर्गों में विभक्त किया है - ललित कला और उपयोगी कला। ललित-कलाएँ जीवन को सरस बनाती हैं और उपयोगी कलाएँ दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करती है। ललित कलाओं में पाँच प्रसिद्ध हैं – (1) काव्य कला, (2) संगीतकला (3) चित्रकला (4) मूर्तिकला और (5) वास्तुकला। इनमें काव्यकला सर्वश्रेष्ठ है। अपने मनोभावों को लेखनी और काव्यात्मक वाणी के माध्यम से सुन्दरतम अभिव्यक्ति प्रदान करना ही काव्यकला है। कला की दृष्टि से मित्ति-चित्रों की भी अपनी विशेषता है। भित्ति-चित्र बनाने के लिए भीतर का प्लास्टर कैसा हो, उसे कैसे बनाया जाय, उस पर लिखाई के लिए जमीन कैसे तैयार की जाय? आदि बातों का सविस्तार वर्णन मानसोल्लास में आया है। सोमदेव ने दो प्रकार के भित्ति-चित्रों का उल्लेख किया है – (1) व्यक्ति-चित्र, (2) प्रतीक-चित्र। व्यक्ति चित्रों में बाहुबलि, प्रद्युम्न, सुपार्श्व तथा यक्षमिथुन का उल्लेख है। प्रतीक-चित्रों में तीर्थकर की माता द्वारा देखे गये सोलह स्वप्नों का विवरण है। व्यक्ति चित्र जैनपरम्परा में बाहुबलि एक महान तपस्वी और मोक्षगामी महापुरूष माने गये हैं। ये तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र तथा भरत चक्रवर्ती के भाई थे।
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy