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वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन
परिच्छेद - 4 सर्वज्ञता की सिद्धि
आचार्य ज्ञानसागर ने सर्वज्ञता की सिद्धि का प्रतिपादन करते हुये लिखा कि जब यह आत्मा समस्त मोह रागादि रूप विकारी भावों से विमुक्त हो अतीन्द्रिय सुख को प्राप्त कर लेती है, जिस निर्मल ज्ञान के प्रकाश में विश्व के समस्त ज्ञेय पदार्थ दर्पणवत् प्रतिबिम्बत होने लगते हैं उस पूर्णज्ञान से ही सर्वज्ञता की सिद्धी होती है। यथा - नैश्चल्यमाप्त्वा विलसेद्यदा तु सदा समस्तं जगदत्र भातु। यदीक्ष्यतामिन्धननाम बाह्यं तदेव भूयादुत बह्निदाह्यम् ।। 4।।
-वीरो.सर्ग.20। अर्थात् जब यह आत्मा क्षोभ-रहित निश्चल होकर विलसित होता है, तब उसमें प्रतिबिम्बित यह समस्त जगत् स्पष्टतः दिखाई देने लगता है; क्योंकि ज्ञेय पदार्थों को जानना ही ज्ञानरूप आत्मा का स्वभाव है। जैसे बाहिरी दाह्य ईंधन को जलाना दाहक रूप अग्नि का काम है, उसी प्रकार बाहिरी समस्त ज्ञेयों को जानना ज्ञायक रूप आत्मा का स्वभाव है।
भविष्य में होने वाले, वर्तमान में विद्यमान और भूतकाल में उत्पन्न हो चुके- ऐसे त्रैकालिक पदार्थों की परम्परा को जानना निरावरण ज्ञान का माहात्म्य है। ज्ञान के आवरण दूर हो जाने से सार्वकालिक वस्तुओं को जानने वाले पवित्र ज्ञान को सर्वज्ञ भगवान धारण करते हैं। अतः वे सर्वज्ञ होते हैं।
भविष्यतामत्र सतां गतानां तथा प्रणालीं दधतः प्रतानाम् । ज्ञानस्य माहात्म्यमसावबाधा-वृत्तेः पवित्रं भगवानथाऽधात्।। 5 ।।
-वीरो.सर्ग.201