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वीरोदय का स्वरूप
वेदों में भी सर्ववेत्ता होने का उल्लेख है। जैसे मणि के अन्दर विद्यमान चमक शाण से प्रकट होती है, उसी प्रकार मनुष्य में सर्वज्ञ बनने की शक्ति है, वह श्रुति के निमित्त से प्रकट होती है। न्यगादि वेदे यदि सर्ववित्कः निषेधयेत्तं च पुनः सुचित्कः । श्रुत्यैव स स्यादिति तूपकलृप्तिः शाणेन किं वा दृषदोऽपि दृप्तिः ।। 11।।
-वीरो.सर्ग.201 जैसे सुई माला बनाते समय क्रम-क्रम से एक-एक पुष्प को ग्रहण करती है, किन्तु हमारी दृष्टि तो टोकरी में रखे हुये समस्त पुष्पों को एक साथ ही एक समय में ग्रहण कर लेती है। इसी प्रकार छद्मस्थ जीवों का इन्द्रिय-ज्ञान क्रम-क्रम से एक-एक पदार्थ को जानता है, किन्तु जिनका ज्ञान आवरण से मुक्त हो गया है, वे समस्त पदार्थों को एक साथ जान लेते हैं। यथा - सूची क्रमादञ्चति कौतुकानि करण्डके तत्क्षण एव तानि। भवन्ति तद्वद्भुवि नस्तु बोध एकैकशो मुक्त इयान्न रोधः।। 12 ।।
__-वीरो.सर्ग.20। ___ परोक्ष ज्योतिषशास्त्र आदि से ज्ञात होने वाले सूर्य-ग्रहण, चन्द्र ग्रहण आदि बातों को स्वीकार करके भी यदि कोई अतीन्द्रिय प्रत्यक्षज्ञान के द्वारा ज्ञात होने वाली वस्तुओं को स्वीकार न करें, तो उसे दुराग्रह के सिवाय और क्या कहा जाय? क्योंकि प्रत्यक्षदृष्टा के वचनों को ही शास्त्र कहते हैं। इसीलिए प्रत्यक्ष-दृष्टा सर्वज्ञ को स्वीकार करना चाहिए। जैसे गुरू के बिना शिष्य नहीं हो सकता, उसी प्रकार सर्वदर्शी के बिना शास्त्र का ज्ञान होना संभव नहीं है।
विश्व-दृष्टा सर्वज्ञ का ज्ञान प्रत्यक्ष होकर भी इन्द्रिय, आलोक आदि की सहायता के बिना ही उत्पन्न होता है। भगवान पुरू (ऋषभ) देव ने 'अक्षं आत्मानं प्रति यद् वर्तते, तत्प्रत्यक्षं' ऐसा कहा है। जो ज्ञान केवल आत्मा की सहायता से उत्पन्न हो, वह प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है