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140 वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन समझकर न तो पर स्त्रियों के पास स्वयं जाता है और न दूसरों को भेजता है, उसे परदार-निवृत्ति या स्वदार-सन्तोष व्रत कहते हैं"न च परदारान् गच्छति न परान् गमयति च पापभीतेर्यत्। सा परदारनिवृतिः स्वदारसन्तोषनामापि।। 59।।
-रत्न.श्रा.। पूज्यपाद देवनन्दि ने सर्वार्थसिद्धि में लिखा है कि गृहीत या अगृहीत परस्त्री के साथ रति न करना गृहस्थ का चौथा अणुव्रत है।" अमृतचन्द्र ने पुरूषार्थसिद्युपाय में लिखा है कि जो मोहवश अपनी स्त्री को छोड़ने में असमर्थ है, उन्हें भी शेष सब स्त्रियों का सेवन नहीं करना चाहिये।" सोमदेव ने उपासकाध्ययन में लिखा है कि वधु और वित्त-स्त्री को छोड़कर अन्य सब स्त्रियों को माता, बहन और पुत्री समझना गृहस्थ का ब्रह्मचर्य है। 5. परिग्रह परमाणाणुव्रत
आचार्य कुन्द-कुन्द ने पंचम अणुव्रत का नाम परिग्रहारंभपरिमाण दिया है। तत्त्वार्थसूत्र में मूर्छा को परिग्रह कहा है और सर्वार्थसिद्धि में उसकी व्याख्या करते हुए बाह्य गौ, भैंस, मुक्ता वगैरह चेतन-अचेतन
और रागादि भावों के संरक्षण अर्जन आदि रूप व्यापार को मूर्छा कहा है। 'वह मेरा है' ऐसा संकल्प होने पर संरक्षण आदि किया जाता है, उसमें हिंसा अवश्य होती है। उसके लिये मनुष्य झूठ बोलता है। चोरी करता है। मैथुन-कर्म में प्रवृत्त होता है। परिग्रह की भावना का मूल ममत्व-भाव है। इसलिए उसे ही परिग्रह कहा है। किन्तु धन, धान्य आदि बाह्य वस्तु उस ममत्व-भाव में कारण होती है, इसलिए उन्हें भी परिग्रह कहा है। आचार्य अमितगति ने अपने श्रावकाचार में लिखा है कि लोक में सब आरम्भ परिग्रह के लिये किये जाते हैं। जो परिग्रह कम करता है वह समस्त आरम्भों को कम करता है।
सर्वारम्भा लोके संपद्यन्ते परिग्रहनिमित्ताः। स्वल्पयते यः संगं स्वल्पयति सः सर्वभारम्मम् ।। 90।।