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________________ वीरोदय का स्वरूप गुणवत गुणव्रत अष्टमूल गुणों में गुणवृद्धि या दृढ़ता करते हैं, इसलिए इनको गुणव्रत कहते हैं। आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में दिग्व्रत, देशव्रत और अनर्थदण्डव्रतं इन तीन गुणव्रतों का उल्लेख किया है। आचार्य समन्तभद्र ने रत्करण्डक श्रावकाचार में दिग्व्रत, अनर्थदण्डव्रत और भोगापभोगपरिमाणव्रत इन तीनों को गुणव्रत माना है। 1. दिग्वत सूक्ष्म पापों से भी बचने के लिए दशों दिशाओं में आवागमन की मर्यादा करके, उससे बाहर जीवन-पर्यन्त नहीं जाना दिग्वत कहलाता दिग्वलयं परिगणितं, कृत्वातोऽहं बहिर्न यास्यामि। इति संकल्पो दिग्वतमामृत्यणुपापविनिवृत्यै ।। 68 ।। -रत्न.श्रा. 2. अनर्थदण्डव्रत दिग्व्रत में की हुई मर्यादा के भीतर, जिनसे धर्म, यश, सुख और लाभ कुछ भी नहीं होता, ऐसी निष्फल पापबंध के कारण, मन, वचन, काय की प्रवृत्ति से विरक्त होना अनर्थदण्डव्रत कहलाता है। प्रयोजन-रहित, पापसहित भोगों से निवृत्त होने को अनर्थदण्डव्रत कहते हैं। इसके पाँच भेद हैं - 1. पापोपदेश - हिंसा, आरम्भ और छल आदि में प्रवर्तक कथाओं का बार-बार प्रसंग उठाना। 2. हिंसादान – हिंसा के उपकरण तलवार आदि का दान। 3. अपध्यान – दूसरों का बुरा चाहना। 4. दुःश्रुति - राग-द्वेष बढ़ाने वाले खोटे शास्त्रों का सुनना। 5. प्रमादचर्या - बिना प्रयोजन के इधन-उधर घूमना, पृथ्वी खोदना आदि प्रमादचर्या हैं। इन पांचों के त्याग को अनर्थदण्डव्रत कहते हैं।
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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