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110 वीरोदय महाकाव्य और म. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन
वीरोदय में धार्मिक स्थिति का निरूपण करते हुये कहा है - उस समय पाप से नहीं डरने वाले लोगों के द्वारा जगदम्बा के समक्ष ही उनके पुत्रों के गले पर छुरी चलाई जाती थी, (बलि दी जाती थी।) (सारी धार्मिक स्थिति अति भयंकर हो रही थी) और उनके इन दुष्कर्मों से यह वसुन्धरा दुराशीष दे रही थे, त्राहि-त्राहि कर रही थी। लोगों में परस्पर विद्वेषमयी प्रवृत्ति फैल रही थी। एक जीव दूसरे जीव को मारने के लिये खड्ग हाथ में लिये हुए था। ऐसा कोई भी मनुष्य नहीं दिखाई देता था जिसका चित्त क्रोध से भरा हुआ न हो। यथासमक्षतो वा जगदम्बिकायास्तत्पुत्रकाणां निगलेऽप्यपायात् । अविम्यताऽसिस्थितिरङ्किताऽऽसीज्जनेन . चानेन धरा दुराशीः।। 35 ।। परस्परद्वेषमयी प्रवृत्तिरेकोऽन्यजीवाय समात्तकृत्तिः । न कोपि यस्याथ न कोऽपि चित्तं शान्तं जनः स्मान्वयतेऽपवित्तम् ।। 36 ।।
___-वीरो.सर्ग.11 __ इस प्रकार लोगों के मन, वचन एवं काय की क्रिया अति कुटिल थी और सभी स्वच्छन्द एवं निरंकुश हो रहे थे। पूर्वभवों का वर्णन
भगवान महावीर के संख्यातीत अगणित जन्मों में भिल्ल जीवन का सबसे अधिक महत्त्व है; क्योंकि इसी जीवन में उन्हें योगिराज का आशीर्वाद मिला, मोह-ग्रन्थि के भेदनार्थ निष्ठा की प्राप्ति हुई और अहिंसा का बीज-वपन हुआ। हिंसानन्दी पुरूरवा भील किस प्रकार करूणावृत्ति के कारण तीर्थकर महावीर के पद को प्राप्त हुआ ? – यही मननीय और चिन्तनीय है। स आह भो भव्य! पुरूरवाङ्ग-भिल्लोऽपि सद्धर्मवशादिहाङ्ग!। आदीशपौत्रत्वमुपागतोऽपि कुदृक्प्रभावेण सुधर्मलोपी।। 21 ।।
-वीरो.सर्ग.111 आध्यात्मिक उत्क्रान्ति की दृष्टि से सम्यग्दर्शन का अत्यधिक महत्त्व है, जिसे दृष्टिलाभ या बोधिलाभ कहते हैं। भगवान महावीर के जीव