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वीरोदय का स्वरूप
111 ने अन्य जीवों की भाँति अनेक जन्म-मरण (भव) किये हैं। उनकी परिगणना करना संभव नहीं है, किन्तु जब उनके जीव ने सर्वप्रथम बोधिलाभ प्राप्त किया तो वे परीत-संसारी हो गए। आत्म-साधना की एक दिशा उन्हें मिल गई। समवायांग में 'श्रमण भगवान महावीर तीर्थकर के भव-ग्रहण से पूर्व छठे भव में पोटिल्ल थे और वहाँ एक करोड़ वर्ष तक श्रामण्य–पर्याय का पालन किया था – ऐसा उल्लेख मिलता है।10
दिगम्बर-परम्परा में महावीर के पूर्वभवों का उल्लेख सर्वप्रथम उत्तरपुराण में हुआ है। उसी का अनुसरण असगकवि ने श्री वर्धमानचरित में, भट्टारकसकलकीर्ति ने वीरवर्धमानचरित में, रइधू ने महावीरचरित में, सिरिहर ने वड्ढमाणचरिउ में, जयमित्तहल्ल ने वर्धमानकाव्य में और कुमुदचन्द्र ने महावीररास में किया है।" श्वेताम्बर-ग्रन्थों में महावीर के सत्ताईस भवों का निरूपण है। और दिगम्बर-ग्रन्थों में तेतीस भवों का। इसके अतिरिक्त नाम, स्थल व आयु आदि के सम्बन्ध में भी दोनों परम्पराओं में अन्तर है, किन्तु इतना तो स्पष्ट है कि उनका तीर्थकरत्व अनेक जन्मों की साधना का परिणाम था। उनमें प्रारम्भ के 22 भव कुछ नाम परिवर्तनादि के साथ वे ही हैं जो कि दिगम्बर परम्परा में बतलाये गये
हैं।
दिगम्बर-मान्यतानुसार 1. पुरूरवा भील 2. सौधर्म देव 3. मारीचि 4. ब्रह्म स्वर्ग का देव 5. जटिल ब्राह्मण 6. सौधर्म स्वर्ग का देव 7. पुष्पमित्र ब्राह्मण 8. सौधर्म स्वर्ग का देव
श्वेताम्बर-मान्यतानुसार 1. नयसार भिल्लराज 2. सौधर्म देव 3. मारीचि 4. ब्रह्म स्वर्ग का देव 5. कौशिक-ब्राह्मण 6. ईशान स्वर्ग का देव 7. पुष्पमित्र ब्राह्मण 8. सौधर्म देव