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जैन परंपरा में पर्यावरण ध्वनिप्रदूषण से तनाव और अनिद्राजनित अनेक रोगों का सामना करना पड़ रहा है। क्या पर्यावरण संकट हिंसा का परिणाम है?
पर्यावरण समस्या को जैन परम्परा की दृष्टि से देखने पर यह प्रश्न उठता है कि क्या पर्यावरण की क्षति एक हिंसा है? सामान्य समझ (common understanding) यही है कि पर्यावरण की क्षति करना हिंसा है। परंतु क्या वह कार्य भी हिंसक माना जा सकता है जिसके फलस्वरूप पर्यावरण पर व्यापक निषेधात्मक असर हुआ हो परन्तु ऐसी क्षतिकारित करने की भावना न रही हो? प्रायः अनेक वैज्ञानिक आविष्कार जिज्ञासावश या अचानक (serendipitously) हो जाते हैं। यदि इन आविष्कारों का व्यापक उपयोग पर्यावरण को गम्भीर क्षति पहंचाता है तो क्या ऐसी जिज्ञासा एक हिंसक कृत्य है? अगर हम जैन विचारकों की इस धारणा को पूर्णतया स्वीकार कर लें कि क्षति कारित करने की भावना ही किसी कार्य को हिंसक ठहराने के लिए उत्तरदायी है तो पर्यावरण पर घातक असर डालनेवाले बहत से कार्य अहिंसा की कोटि में आ जायेगें। यदि पर्यावरण क्षति कारित करने वाले सभी कार्यों को हिंसक कहा जाय तो पृथ्वी पर जीवन का अस्तित्व ही हिंसा का पर्याय हो जायेगा और अहिंसा बेमानी हो जायेगी। इस दुविधापूर्ण स्थिति (paradoxical situation) से उबरने के लिए दो बातें कही जा सकती हैं। पहली यह कि जैन परम्परा सिद्धान्ततः अहिंसा को निरपेक्ष रूप में स्वीकार करती है। इसके अनुसार वातावरण में चतुर्दिक् जीवों का निवासस्थान है इसलिए इसमें कोई भी गतिविधि किसी न किसी जीव को क्षति पहँचायेगी। इस अर्थ में पर्यावरण को क्षति पहँचाना वास्तव में जीवन को क्षति पहुँचाना है इसलिए पर्यावरण की समस्या हिंसा का परिणाम मानी जानी चाहिए। परन्तु जैसा कि पहले कहा गया है इस स्थिति में मानव सहित अनेक प्राणियों का जीवन ही असम्भव हो जायेगा। इसीलिए जैन परम्परा में अणुव्रत का प्रावधान किया गया है, जो कि जीवित रहने के लिए अनिवार्य हिंसा की स्वीकृति देता है। दूसरी बात यह कि ज्ञान-विज्ञान का विकास और उसका व्यावहारिक या व्यापारिक प्रयोग दो अलग-अलग चीजें हैं। ज्ञान के विकास और मानव जीवन को सुखमय बनाने के लिए न्यूनतम मात्रा में हिंसा की स्वीकृति अणुव्रत का भाग माना जा सकता है। परन्तु जब विज्ञान का उपयोग लाभ और लोभ से प्रेरित होता है तो ऐसे कृत्य द्वारा की गयी हिंसा सर्वथा अस्वीकार्य है। आज हमारे सामने पर्यावरण संकट का प्रमुख कारण वास्तव में लाभ और लोभ के वश में प्रकृति का अविचारपूर्वक दोहन करना ही है।