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________________ मनोज कुमार तिवारी किन्तु गाढ़ सुषुप्ति में स्थित पुरुष के तो मन-बुद्धि अज्ञान के कारण अपने कारण माया में विलीन हो जाते हैं। अतः उसको स्थिति तमोगुणमयी है, पर इस ज्ञानी महापुरुष के मन बुद्धि ब्रह्म में तद्रूप हो जाते हैं। अतः इसकी अवस्था गुणातीत है। इसलिए यह गाढ़ सुषुप्ति से अत्यन्त विलक्षण है । ७८ गाढ़ सुषुप्ति में स्थित पुरुष तो निद्रा के परिपक्व हो जाने पर स्वतः ही जाग जाता है किन्तु इस समाधिस्थ ज्ञानी महात्मा पुरुष की व्युत्थानावस्था तो दूसरों के बारम्बार प्रयत्न करने पर ही होती है, अपने-अ - आप नहीं । उस व्युत्थानावस्था में वह जिज्ञासु के प्रश्न करने पर पूर्व के अभ्यास के कारण ब्रह्मविषयक तत्त्वरहस्य को बता सकता है। इसी कारण ऐसे पुरुष को 'ब्रह्मविद्वरीयान्' कहते है । श्री ऋषभदेवजी इस छठी भूमिका में स्थित माने जा सकते है। ७. तुर्यगा- छठी भूमिका के पश्चात् सातवी भूमिका स्वतः ही हो जाती है। उस ब्रह्मवेत्ता ज्ञानी महात्मा पुरुष के हृदय में संसार का और शरीर के बाहर-भीतर के लौकिक ज्ञान का अत्यन्त अभाव हो जाता है। क्योंकि उसके मन- - बुद्धि ब्रह्म में तद्रूप हो जाते हैं, इस कारण उसकी व्युत्थानावस्था तो न स्वतः होती है और न दूसरों के द्वारा प्रयत्न किये जाने पर ही होती है। जैसे मुर्दा जगाने पर भी नहीं जाग सकता, वैसे ही यह मुर्दे की भाँति हो जाता है। अंतर इतना ही रहता है कि मुर्दे में प्राण नहीं रहते और इसमें प्राण रहते हैं तथा यह श्वास लेता रहता है। ऐसे पुरुष का संसार में जीवन - निर्वाह दूसरे लोगों के द्वारा केवल उसके प्रारब्ध के संस्कारों के कारण ही होता रहता है। वह प्रकृति और उसके कार्य सत्त्व, रज, तम तीनों गुणों से और जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति - तीनों अवस्थाओं से अतीत होकर ब्रह्म में विलिन रहता है, इसलिए यह उसके अन्तःकरण की अवस्था तुर्यगा भूमिका कही जाती है।" ब्रह्म की दृष्टि में संसार का अत्यन्त अभाव है। उपर्युक्त महात्मा पुरुष उस सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को नित्य ही प्राप्त है। अतः उसके मन-बुद्धि में भी शरीर और संसार का अत्यन्त अभाव है। इसलिए ऐसे पुरुष को ब्रह्मविद्वरिष्ठ कहते हैं। ऐसे महापुरुष से वार्तालाप न होने पर भी उसके दर्शन और चिन्तन से ही मनुष्य के चित्त में मल, विक्षेप और आवरण का नाश होने से उसकी वृत्ति परमात्मा की ओर आकृष्ट होने पर उसका कल्याण हो सकता है। यह तुर्यावस्था जीवन्मुक्त पुरुषों में इस शरीर के रहते हुए ही विद्यमान रहती है। इस देह का अन्त होने पर विदेह मुक्ति का विषय साक्षात् तुर्यातीत ब्रह्म ही है।
SR No.006157
Book TitleParamarsh Jain Darshan Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSavitribai Fule Pune Vishva Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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