________________
जैन दर्शन एवं योगवासिष्ठ में आध्यात्मिक विकास की भूमियाँ
७९
__ ज्ञान की ये सात भूमिकाएँ विवेकी पुरुषों को ही प्राप्त होती है। जो इन भूमिकाओं में पहुँचकर उत्तरोत्तर उत्कृष्ट स्थानों पर विजय पाते जाते हैं, वे महात्मा निश्चय ही वन्दनीय है। __इस प्रकार से योगवासिष्ठ और जैन परम्परा में आध्यात्मिक विकास की ये अवस्थाएँ है जिनमें सात आध्यात्मिक विकास की अवस्था और सात आध्यात्मिक पतन की अवस्था है। यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो जैन परम्परा के गुणस्थान सिद्धान्त में भी आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से विकास का सच्चा स्वरूप अप्रमत्त चेतना के रूप में सातवें स्थान से प्रारम्भ होता है। इस प्रकार जैन परम्परा में भी चौदह गुणस्थानों में सात अवस्थाएँ आध्यात्मिक विकास की ओर सात अवस्थाएं
आध्यात्मिक अविकास की हैं। योगवासिष्ठ की उपर्युक्त मान्यता की जैन परम्परा से कितनी निकटता है इसका निर्देश पं. सुखलाल जी ने भी किया है।२० . . ___ योगवासिष्ठ एवं जैन परम्परा में आचरणात्मक पक्ष पर विशेष बल दिया गया है। जैन दर्शन के तीन रत्न है-सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र। जब तक हम ज्ञान को अपने आचरण में नहीं लाएगें तब तक हम मोक्ष की ओर अग्रसर नहीं होगें। ज्ञानात्मक पक्ष के सम्यक् होने के साथ-साथ उसका आचरण पक्ष भी सम्यक् होना चाहिए। इसी प्रकार योगवासिष्ठ का भी ज्ञान और कर्म के सम्बन्ध में विचार है। इस ग्रंथ में ज्ञान और कर्म में समन्वय स्थापित किया गया है। जो ज्ञान आचरण या व्यवहार में न हो उस ज्ञान का कोई अर्थ नहीं है। इस ग्रंथ ने तो यहाँ तक कहा है कि जो ज्ञानी ज्ञान के अनुरूप आचरण नहीं करते अर्थात् जिनकी कथनी और करनी में अंतर है, वे ज्ञानी नहीं ज्ञानबन्धु है और इनसे अच्छा अज्ञानी है। कहने का तात्पर्य यह है ये दोनों ही आचरण पक्ष को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। हम अपने लक्ष्य अर्थात् मोक्ष को तभी प्राप्त कर सकते हैं जब ज्ञान को अपने आचरण में समाविष्ठ करें। वर्तमान समस्याओं की मूल में हमारी इस आचरण पक्ष का असम्यक् होना है। हम यथार्थ को जानते हैं, क्या सही है क्या गलत है इसे भी जानते हैं लेकिन उसे आचरण में चरितार्थ नहीं कर पाते। अतः हम ज्ञानात्मक पक्ष के साथ-साथ आचरणात्मक पक्ष को भी सम्यक् करके ही आध्यात्मिक पथ के पथिक बनकर अपने लक्ष्य की ओर उत्तरोत्तर अग्रसर हो सकते हैं।