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जैन दर्शन एवं योगवासिष्ठ में आध्यात्मिक विकास की भूमियाँ
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__इस चौथी अवस्था में पहुँचे हुए पुरुष को ब्रह्मवित्-ब्रह्मवेत्ता कहा जाता है और वह लौटकर नहीं आता। इसमें संसार उस ज्ञानी महात्मा के अन्तःकरण में स्वप्नवत् भासित होता है, इसलिए यह उसके अन्तःकरण की स्वप्नावस्था मानी जाती है। श्री याज्ञवल्क्यजी, राजा अश्वपति और जनक आदि इस भूमिका में पहुँचे हुए माने गये
हैं।
५. असंसक्ति- जब पूर्वोक्त चारों के सिद्ध हो जाने पर स्वाभाविक अभ्यास से बाह्याभ्यन्तर सभी विषय-संस्कारों से अत्यन्त असम्बन्धरूप समाधिपरिपाक से चित्त में निरतिशयानन्द, नित्यापरोक्ष, ब्रह्मात्मभावसाक्षात्काररूप चमत्कार उत्पन्न होने से ऐसी पाँचवी 'ज्ञानभूमि असंसक्ति' नाम से कही जाती है।४।।
परम वैराग्य और परम उपरति के कारण उस ब्रह्मप्राप्त ज्ञानी महात्मा का इस संसार और शरीर से अत्यन्त सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। ऐसे पुरुष का संसार से कोई भी प्रयोजन नहीं रहता। अतः कर्म करने या न करने के लिए बाध्य नहीं है। गीता में भगवान ने कहा है- स्वरूपसिद्ध व्यक्ति के लिए न तो अपने नियत कर्मों को करने की आवश्यकता रह जाती है और न ऐसा कर्म न करने का कोई कारण ही रहता है। उसे किसी अन्य जीव पर निर्भर रहने की आवश्यकता भी नहीं रह जाती
फिर भी उस ज्ञानी महात्मा पुरुष के सम्पूर्ण कर्म शास्त्रसम्मत और कामना एवं संकल्प से शून्य होते हैं। इस प्रकार जिसके समस्त कर्म ज्ञानरूप अग्नि के द्वारा भस्म हो गये हैं, उस महापुरुष को ज्ञानीजन भी पंडित कहते हैं। श्री भरतजी इस पाँचवी भूमिका में स्थित माने जा सकते हैं। .
६. पदार्थाभावनी - पाँचवी भूमिका के पश्चात् जब वह ब्रह्मप्राप्त पुरुष छठी भूमिका में प्रवेश करता है, तब उसकी नित्य समाधि रहती है। इसके कारण उसके द्वारा कोई भी क्रिया नहीं होती। उसके अन्तःकरण में शरीर और संसार के सम्पूर्ण पदार्थों का अत्यन्त अभाव-सा हो जाता है। उसे संसार का और शरीर के बाहरभीतर का बिल्कुल ज्ञान नहीं रहता, केवल श्वास आते-जाते हैं। इसलिए इस भूमिका को पदार्थाभावनी कहते हैं। जैसे- गाढ़ सुषुप्ति में स्थित पुरुष को बाहरभीतर के पदार्थों का ज्ञान बिल्कुल नहीं रहता है, वैसे ही इसको भी ज्ञान नहीं रहता है। अतः उस पुरुष की इस अवस्था को गाढ़ सुषुप्ति अवस्था भी कहा जा सकता है।