________________
७६
मनोज कुमार तिवारी
१५)। इस प्रकार विवेक-वैराग्य हो जाने पर साधक का चित्त निर्मल हो जाता है। उसमें क्षमा, सरलता, पवित्रता तथा प्रिय-अप्रिय की प्राप्ति में समता आदि गुण आने लगते हैं। प्रथम भूमिका में श्रवण किये हुए महावाक्यों (तत्त्वमसि, अहं ब्रह्मास्मि आदि) का निरन्तर मनन और चिन्तन करना ही प्रधान होने के कारण इस दूसरी भूमिका को विचारणा कहा गया है अतः इसे 'मनन' भूमिका भी कहा जाता है।
३. तनुमानसा - उपर्युक्त शुभेच्छा और विचारणा के द्वारा इन्द्रियों के विषय भोगों में आसक्ति का अभाव होना और अनासक्त हो संसार में विचरण करना, यह तनुमानसा कहलाता है। अभिप्राय यह है कि उपर्युक्त कामना, आसक्ति और ममता के अभाव से सत्पुरुषों के संग और सत्-शास्त्रों के अभ्यास से तथा विवेकवैराग्यपूर्वक निदिध्यासन-ध्यान के साधन से साधक की बुद्धि तीक्ष्ण हो जाती है तथा उसका मन शुद्ध, निर्मल, सुक्ष्म और एकाग्र हो जाता है, जिससे उसे सूक्ष्मातिसूक्ष्म परमात्मतत्त्व को ग्रहण करने की योग्यता अनायास ही प्राप्त हो जाती है। इसे 'निदिध्यासन भूमिका' भी कहा जा सकता है।
ये तीनों भूमिकाएँ साधनरूप है। इनमें संसार से कुछ सम्बन्ध रहता है, अतः यहाँ तक साधक की जाग्रत्-अवस्था मानी गई है।
४. सत्त्वापत्ति - उपर्युक्त तीनों भूमिकाओं के अभ्यास से बाह्य विषयों में संस्कार न रहने के कारण चित्त में अत्यन्त विरक्ति होने से माया, माया के कार्य और तीनों अवस्थाओं से शोधित, सबके आधार, सन्मात्ररूप आत्मा में दूध में जल के समान ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेयभाव के विनाश से साक्षात्कारपर्यंत निर्विल्पक समाधिरूपा स्थिति सत्त्वापत्ति है। इस भूमिका में मन परमात्मसत्त्वरूप से स्थित होने से जीव ब्रह्मवित् कहा जाता है। इसी को गीता में निर्वाण ब्रह्म की प्राप्ति कहा गया है- जो अन्तःकरण में सुख का अनुभव करता है, जो कर्मठ है और अन्तःकरण में ही रमण करता है तथा जिसका लक्ष्य अन्तर्मुखी होता है वह सचमुच पूर्ण योगी है। वह परब्रह्म में मुक्ति पाता है और अन्ततोगत्वा ब्रह्म को प्राप्त होता है।
जिस प्रकार सारी नदियाँ बहती हुई अपने नाम-रूप को छोडकर समुद्र में विलीन हो जाती हैं, उसी प्रकार ज्ञानी महात्मा नामरूप से रहित होकर परम दिव्य पुरुष परात्पर परमात्मा को प्राप्त हो जाता है, उसी में विलीन हो जाता है।"
जब साधक को परब्रह्म का यथार्थ ज्ञान हो जाता है, तब वह ब्रह्म ही हो जाता है- ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति। (मुण्डकोपनिषद् ३/२/१)