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________________ ७५ जैन दर्शन एवं योगवासिष्ठ में आध्यात्मिक विकास की भूमियाँ अवस्था है वही भावी दुःखों का बोध करानेवाले बीजरूप अज्ञान से सम्पन्न सुषुप्ति है। इस अवस्था में संसार के तृण, मिट्टी, पत्थर आदि सब ही पदार्थ अत्यन्त सूक्ष्म रूप से वर्तमान रहते हैं। ___ इस प्रकार से ये सात प्रकार की अज्ञान की भूमिकायें है जो नाना प्रकार के विकारों तथा लोकान्तरों के भेदों से युक्त होने के कारण निन्द्य एवं त्याज्य बताई गयी __ आत्मा का बोध करानेवाली ज्ञान की सात भूमिकायें हैं। मुक्ति इन भूमिकाओं से परे है। मोक्ष और सत्य का ज्ञान ये पर्यायवाची शब्द है। जिसको सत्य का ज्ञान हो गया है वह जीव फिर जन्म नहीं लेता। ज्ञान की सात भूमिकायें इस प्रकार है - शुभेच्छा, विचारणा, तनुमानसा, सत्त्वापत्ति, असंसक्ति, पदार्थभावनी, तुर्यगा। इनके अन्त में मुक्ति है जिसको प्राप्त करके शोक नहीं रहता। इन भूमिकाओं का वर्णन इस प्रकार है १. शुभेच्छा - वैराग्य उत्पन्न होने पर इस प्रकार की इच्छा कि 'मैं अज्ञानी क्यों रहँ, क्यों न शास्त्र और सज्जनों की सहायता से सत्य को जानें शुभेच्छा कहलाती है। शास्त्र निषिद्ध कर्मों का मन, वाणी और शरीर से त्याग निष्काम यज्ञ, दान आदि के अनुष्ठान से उत्पन्न, संयास मुक्तिपर्यंत रहनेवाली श्रवण आदि में प्रवृत्ति के फलस्वरूप आत्म-साक्षात्कार की उत्कट इच्छा ही ज्ञान की पहली भूमिका है। इस भूमिका को श्रवण भूमिका भी कहते हैं। २. विचारणा - शास्त्रों के अध्ययन, मनन और सत्पुरुषों के संग तथा विवेकवैराग्य के अभ्यासपूर्वक सदाचार में प्रवृत्ति का नाम विचारणा है। उपर्युक्त प्रकार से सत्पुरुषों के संग, सेवा एवं आज्ञा-पालन से सत्-शास्त्रों के अध्ययन-मनन से, तथा दैवी सम्पदा सद्गुण-सदाचार के सेवन से उत्पन्न हुआ विवेक ही विचारणा है। भाव यह है कि सत्-असत् और नित्य-अनित्य वस्तु के विवेचन का नाम विवेक है। विवेक इनको पृथक् कर देता है। सब अवस्थाओं में और प्रत्येक वस्तु में प्रतिक्षण आत्मा और अनात्मा का विश्लेषण करते-करते यह विवेक सिद्ध होता है। उपर्युक्त विवेक के द्वारा जब सत्-असत् और नित्य-अनित्य का पृथक्करण हो जाता है, तब असत् और अनित्य से आसक्ति हट जाती है एवं इस लोक और परलोक के सम्पूर्ण पदार्थों और कर्मों में कामना और आसक्ति का न रहना ही 'वैराग्य' है। महर्षि पतंजलि ने कहा है, दृष्टानुश्रविकविटवितृष्णस्य वशीकार संज्ञा वैराग्यम् (योगदर्शन १/
SR No.006157
Book TitleParamarsh Jain Darshan Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSavitribai Fule Pune Vishva Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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