________________
७४
मनोज कुमार तिवारी
का आरोप है। अज्ञान की सात भूमिकाएँ इस प्रकार हैं- (१) बीज जग्रत् (२)
जाग्रत्
(३) महाजाग्रत् (४) जाग्रत्-स्वप्न (५) स्वप्न (६) स्वप्नजाग्रत् और (७) सुषुप्ति।
१. बीज जाग्रत् - सृष्टि के आदि में चिन्मय परमात्मा से जो प्रथम, नामनिर्देश रहित एवं विशुद्ध व्यष्टि चेतन प्रकट होता है, वह भविष्य में होनेवाले जीवादि नामों से पुकारा जा सकता है और जिसमें जाग्रत् अवस्था का अनुभव बीजरूप से स्थित होता है, उसे बीजजाग्रत् कहते हैं।
२. जाग्रत् - नवजात बीज जाग्रत् के पश्चात् यह ज्ञान कि “यह मैं हूँ", "यह मेरा है" जाग्रत् कहलाता है। इसमें पूर्वकाल की कोई स्मृति नहीं होती।
३. महाजाग्रत् - पहले जन्मों में उदय हुआ और दृढ़ता को प्राप्त हुआ यह ज्ञान कि “यह मैं हैं" और "यह मेरा है", महा जाग्रत् कहलाता है। जैसे ब्राह्मण आदि जातियों में उत्पन्न हए लोगों में से किसी-किसी व्यक्ति का जन्मान्तर के अभ्यास से अपने वर्णोचित कर्मों में विशेष आग्रह और नैपुण्य देखा जाता है, सबमें ऐसी बात नहीं पायी जाती है। अतः इस जन्म के या जन्मान्तर के दृढ़ अभ्यास से दृढ़ता को प्राप्त हुई जो पूर्वोक्त जाग्रत् प्रतीति है, उसी को महाजाग्रत् कहा गया है।
४. जाग्रत् स्वप्न - जाग्रत् अवस्था का दृढ़ या अदृढ़ जो सर्वथा तन्मयात्मक मनोराज्य है, इसी को जाग्रत् स्वप्न कहते हैं। वह कई प्रकार का होता है- जैसे एक चन्द्रमा की जगह दो चन्द्रमा का दर्शन, सीपी के स्थान पर चाँदी की प्रतीति और मृगतृष्णादि का भान। प्रचलित भाषा में इस प्रकार के ज्ञान को भ्रम कहते हैं। इसका उदय कल्पना द्वारा जाग्रत् दशा में होता है इसलिए इसका नाम जाग्रत्स्वप्न है।
५. स्वप्न - महाजाग्रत् अवस्था के अन्तर्गत निद्रा के समय अनुभव किये हुए विषय के प्रति जागने पर जब इस प्रकार का भाव हो कि 'यह विषय असत्य है और इसका अनुभव मुझे अल्प समय के लिए ही हुआ था'- उस ज्ञान का नाम स्वप्न है।
६. स्वप्नजाग्रत् - जब अधिक समय तक जाग्रत् अवस्था के स्थूल विषयों और स्थूल देह का अनुभव न हो तो स्वप्न ही जाग्रत् के समान होकर महाजाग्रत् सा मालूम पडने लगता है। स्थूल शरीर के रहते हुए अथवा न रहते हुए जब इस प्रकार का अनुभव होता है तो उसे स्वप्न जाग्रत् कहते हैं।
७. सुषुप्ति - पूर्वोक्त छः अवस्थाओं का परित्याग करने पर जो जीव की जड़