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________________ जैन दर्शन एवं योगवासिष्ठ में आध्यात्मिक विकास की भूमियाँ विवश है। जैन विचार इसी को अविरत सम्यग्दृष्टित्व कहता है। ५. देशविरति सम्यग्दृष्टि गुणस्थान - यह विकास की पाँचवी श्रेणी है, इस अवस्था में वासनाओं एवं कषायों पर आंशिक नियंत्रण की क्षमता का विकास होना शुरू हो जाता है जिसके कारण नैतिक आचरण की दृष्टि से यह प्रथम स्तर ही है। देशविरति का अर्थ है - वासनामय जीवन से आंशिक रूप से निवृत्ति। हिंसा, झूठ, परस्त्रीगमन आदि अशुभाचार तथा क्रोध, लोभ, मोहादि कषायों से आंशिक रूप से विरत होना ही देशविरति है। इस अवस्था का साधक साधना पथ पर फिसलता तो है लेकिन उसमें सम्भलने की भी क्षमता होती है। ६. प्रमत्तसंयत गुणस्थान - इस अवस्था में वह पूर्णतया सम्यक्-चारित्र की आराधना प्रारम्भ कर देता है। उसका व्रत अणुव्रत न कहलाकर महाव्रत कहलाता है। साधक अपनी आध्यात्मिक परिस्थिति के अनुसार इस भूमिका से नीचे गिर सकता है और ऊपर चढ़ सकता है। जब-जब साधक कषायादि प्रमादों पर अधिकार कर लेता है तब-तब वह ऊपर की श्रेणी में चला जाता है और जब-जब कषायादि प्रमाद उस पर हावी होते हैं तब-तब वह आगे की श्रेणी से विचलित होकर पुनः इस श्रेणी में आ जाता है। वस्तुतः यह उन साधकों का विश्रान्ति स्थल है जो साधना पथ पर प्रगति तो करना चाहते हैं, लेकिन यथेष्ट शक्ति के अभाव में आगे बढ़ नहीं पाते। इस अवस्था में आत्मकल्याण के साथ लोककल्याण की भावना और तदनुकूल प्रवृत्ति भी होती है। ७. अप्रमत्तसंयत गुणस्थान - इस अवस्था में साधक व्यक्त-अव्यक्त सम्पूर्ण प्रमादादि दोषों से रहित होकर आत्मसाधना में लीन रहता है। लेकिन प्रमादजन्य वासनाएँ बीच-बीच में साधक का ध्यान विचलित करती रहती हैं। इस कारण से साधक की नैया छठवें और सातवें गुणस्थान के बीच में डोलायमान रहती है। यह गुणस्थान नैतिकता और अनैतिकता के मध्य होने वाले संघर्ष की पूर्व तैयारी का स्थान है। ८. अपूर्वकरण गुणस्थान - यह अवस्था आत्मगुण-शुद्धि अथवा लाभ की अवस्था है क्योंकि इस अवस्था में साधक का चारित्रबल विशेष बलवान होता है और वह प्रमाद एवं अप्रमाद के इस संघर्ष में विजयी बनकर विशेष स्थायी अप्रमत्त अवस्था को प्राप्त कर लेता हैं, फलतः उसे एक ऐसी शक्ति की प्राप्ति होती है जिससे वह शेष बचे हुए मोहासक्ति को भी नष्ट कर सकता है। यद्यपि जैन दर्शन में नियति
SR No.006157
Book TitleParamarsh Jain Darshan Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSavitribai Fule Pune Vishva Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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